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Saturday, October 21, 2017

गोत्र, प्रवर और साधारण होम / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार /

गोत्र, प्रवर और साधारण होम / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती -

विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती है। इसीलिए उन सभी का संक्षिप्त विवरण आवश्यक हैं। समान गोत्र प्रवर की कन्या के साथ विवाह करने से जो संतान होती है वह चाण्डाल श्रेणी में गिनी जानी चाहिए। जैसा कि यमस्मृति का वचन हैं कि:

आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यश्‍चशूद्रज:।

सगोत्रोढासुतश्‍चैव चाण्डालास्त्रायईरिता:॥

‘संन्यासी का पुत्र, ब्राह्मणी स्त्री से शूद्र का पुत्र और समान गोत्र वाली कन्या से विवाह कर के जन्माया पुत्र, ये तीनों चाण्डाल कहाते हैं’ पर देखते हैं कि सभी देशों के ब्राह्मण आदि समाजों में ऐसा बहुधा होता है। यहाँ तक कि बहुतों को तो गोत्र का ज्ञान भी नहीं होता। प्रवर, शाखा आदि की बात ही दूर रहे। और विवाह गोत्र भिन्न रहने पर भी यदि प्रवरों की एकता हो जावे तो भी नहीं होना चाहिए। जैसा कि पूर्व परिशिष्ट में लिखा गया।

गोत्र नाम है कुल, संतति, वंश, वर्ग का। यद्यपि पाणिनीय सूत्रों के अनुसार 'अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम्' 4-1-162, पौत्रा आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं। तथापि वह सिर्फ व्याकरण के लिए संकेत है। इसी प्रकार यद्यपि वंश या संतति को ही गोत्र कहते हैं तथापि विवाह आदि में जिस गोत्र का विचार है वह भी सांकेतिक ही है और सिर्फ विश्‍वामित्रा, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, इन आठ ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की ही गोत्र संज्ञा है। जैसाकि बोधयन के महाप्रवराध्याय में लिखा है कि :

विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।

अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥ सप्तानामृषी-

णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥

इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए। तथापि इस समय भारत में तो उतने गोत्रों का पता है नहीं। प्राय: 80 या 100 गोत्र मिलते हैं।

जो गोत्र के नाम से ऋषि आए हैं वही प्रवर भी कहाते हैं। ऋषि का अर्थ है वेदों के मंत्रों को समाधि द्वारा जाननेवाला। इस प्रकार प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ है। यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक। यही परम्परा चली आती हैं। पर, मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों हैं? ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :

त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न

पंचातिवृणीते॥ 8॥

जो दस गोत्र कर्ता ऋषि मूल में बताए गए हैं, उनके वंश का विस्तार बहुत हुआ और आगे चल कर जहाँ-जहाँ से एक-एक वंश की शाखा अलग होती गई वहाँ से उसी शाखा का नाम गण कहलाता है और उस शाखा के आदि ऋषि के नाम से ही वह गण बोला जाता है। इस प्रकार उन दस ऋषियों के सैकड़ों गण हो गए हैं और साधारणतया यह नियम है कि गणों के भीतर जितने गोत्र हैं न तो उनका अपने-अपने गण-भर में किसी दूसरे के साथ विवाह होता है और न एक मूल ऋषि के भीतर जितने गण हैं उनका भी परस्पर विवाह हो सकता है। क्योंकि सबका मूल ऋषि एक ही है। हाँ, भृगु और अंगिरा के जितने गण हैं उनमें हरेक का अपने गण के भीतर तो विवाह नहीं हो सकता पर, गण से बाहर दूसरे गण में तभी विवाह होगा जबकि दोनों के प्रवर एक न हो जावे। प्रवर एक होने का भी यह अर्थ नहीं कि दोनों के 3 या 5 जितने प्रवर हैं सब एक ही रहें। बल्कि यदि दोनों के तीन ही प्रवर हों और उनके दो ऋषि दोनों में हों तो यह प्रवर एक ही कहलाएगा। इसी प्रकार यदि पाँच प्रवर हों तो तीन के एक होने से ही एक होगा। सारांश, आधे से अधिक ऋषि यदि एक हों तो समान प्रवर हो जाने से विवाह नहीं होना चाहिए। जैसा कि बोधयन ने लिखा है :

द्वयार्षेयसन्निपातेऽविवाहस्त्रयार्षेयाणांत्रयार्षेयसन्निपातेऽविवाह:प×चार्षेयाणामसमानप्रवरैर्विवाह:॥

इसीलिए बोधयन आदि ने गोत्र का जो सांकेतिक अर्थ किया है उसमें भृगु और अंगिरा को न कह कर आठ ही को गिनाया है, नहीं तो जैसे अत्रि आदि के गणों में जहाँ तक एक गोत्र कर्ता ऋषि उनके किसी भी गोत्र के प्रवरों में विद्यमान रहे वह वास्तव में एक ही गोत्र कहलाते हैं, चाहे व्यवहार के लिए भिन्न ही क्यों न हों और चाहे उनके प्रवर तीन हों या पाँच। उसी प्रकार भृगु और अंगिरा के भी गणों के प्रवरों में सिर्फ एक ही ऋषि के समान होने से ही उनके तीन और पाँच प्रवरवाले गोत्रों का विवाह नहीं हो पाता। मगर अब हो सकता है। क्योंकि एक ऋषि की समानता का नियम सिर्फ आठ ही ऋषियों के लिए है, न कि भृगु और अंगिरा के लिए भी। जैसा कि -

एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनुवर्त्तते।

तावत्समानगोत्रत्वमन्यत्रांगिरसोभृगो:॥

भृगु और अंगिरा के वंशजों के जो गण है उसमें कुछ तो गोत्र के उन आठ ऋषियों के ही गण में आ गए हैं और कुछ अलग हैं। इस प्रकार भृगु और केवल भृगु एवं अंगिरा और केवल अंगिरा इस तरह के उनके दो-दो विभाग हो गए हैं। भृगु के 7 गणों में वत्स, विद और आर्ष्टिषेण ये तीन तो जमदग्नि के भीतर आ गए। शेष यस्क, मिवयुव, वैन्य और शुनक ये केवल भार्गव कहाते हैं। इसी प्रकार अंगिरा के गौतम, भारद्वाज और केवल आंगिरस ये तीन गण हैं। उनमें दो तो आठ के भीतर ही है। गौतम के 10 गण हैं, अयास्य, शरद्वन्त, कौमण्ड, दीर्घतमस, औशनस, करेणुपाल, रहूगण, सोमराजक, वामदेव, बृहदुक्थ। इसी प्रकार भारद्वाज के चार हैं, भारद्वाज, गर्ग, रौक्षायण, कपि। केवलांगिरस के पाँच हैं, हरित, कण्व, रथीतर, मुद्गल, विष्णुबृद्ध। इस तरह सिर्फ भृगु और अंगिरा के ही 23 गण हो गए। इससे स्पष्ट है कि भरद्वाज या भारद्वाज गोत्र का गर्ग या गार्ग्य के साथ विवाह नहीं हो सकता। क्योंकि उनका गण एक ही है।

अत्रि के चार गण हैं, पूर्वात्रोय, वाद्भुतक, गविष्ठिर, मुद्गल।

विश्‍वामित्र के दस हैं - कुशिक, रोहित, रौक्ष, कामकायन, अज्ञ, अघमर्षण, पूरण, इंद्रकौशिक, धनंजय, कत। धनंजय और कौशिक का परस्पर विवाह नहीं हो सकता।

कश्यप के पाँच हैं - कश्यप, निध्रुव, रेभ, शांडिल्य, लौगाक्षि। शांडिल्य, कश्यप, लौगाक्षि का परस्पर विवाह असंभव है।

वसिष्ठ के पाँच हैं - वसिष्ठ, कुंडिन, उपमन्यु, पराशर और जातूकर्ण्य। वसिष्ठ और पराशर आदि का परस्पर विवाह ठीक नहीं है।

अगस्त्य का कोई अन्तर्गण नहीं है। इस प्रकार कुल 51 गण हैं। किसी-किसी के मत से कुछ कम या अधिक भी है।

कोई-कोई गौत्र द्वयामुष्यायण कहलाते हैं, जैसे सांकृति या साकृत्य और लौगाक्षि आदि। इसका अर्थ यह है कि इन ऋषियों का सम्बन्ध दो गोत्रों से हैं। ये ऋषि किसी कारण से दोनों गोत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, न कि एक छोड़ कर दूसरे से मिल गए। इसीलिए सांकृति का वसिष्ठ के साथ और लौगाक्षि का भी वसिष्ठ के साथ, एवं लौगाक्षि का और सांकृति का भी परस्पर विवाह नहीं होगा। क्योंकि लौगाक्षि और सांकृति दोनों वसिष्ठ गोत्र में गए और साथ ही, सांकृति का केवलांगिरस के गण में और लौगाक्षि का कश्यप के गण में जन्म हैं।

भरद्वाज, भारद्वाज, कश्यप, काश्यप, गर्ग, गार्ग्य, भृगु, भार्गव ये अलग-अलग गोत्र हैं, न कि कश्यप और काश्यप आदि एक ही है। परंतु विवाह तो फिर भी कश्यप काश्यप आदि का परस्पर नहीं हो सकता। कारण, मूल ऋषि एक ही हैं। इसी प्रकार यद्यपि भृगु के वंश में ही वत्स हुए, तथापि वत्सगोत्र अलग ही है। विश्‍वामित्र के प्रकरण में इंद्र कौशिक गोत्र है जो कौशिक से भिन्न ही है। इसी प्रकार धृत गोत्र भी उसी में हैं। मगर कहीं-कहीं सर्यूपारियों में धृत कौशिक को एक ही गोत्र मान कर व्यवहार करते हैं। यह भूल है। इसी प्रकार गर्दभीमुख नाम के एक ऋषि कश्यप के गण में हैं और शांडिल्य भी। पर इसका अर्थ न समझ लोगों ने गर्दभी मुख का कल्पित अर्थ कर डाला है और श्रीमुख नाम का एक दूसरा गोत्र भी मान रखा है। उनके विचार से शांडिल्य गोत्र के ही ये दो भेद हैं। मगर बात यह नहीं है। यह तो परस्पसर नीच-ऊँच के भावों का फल है। श्रीमुख कोई गोत्रकार ऋषि नहीं हैं। हाँ गर्दभीमुख है। पर शांडिल्य से भिन्न है। फिर भी, कश्यप के अन्तर्गत होने से दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। कोई-कोई इंद्र और कौशिक ये दो गोत्र मानते हैं और धृत को घृत पढ़ते हैं। पाठ-भेद हो सकता है। पर, हरिवंश के सातवें अध्याय में धृत ही मिलता है और उनको धर्मभृत भी कहा है। इससे धृत पाठ ही अधिक माननीय है।

गोत्रों के प्रवर के सिवाय वेद, शाखा, सूत्र पाद, सिखा और देवता का भी विचार है। ऐसा संप्रदाय अभी तक बराबर चला आता है। इनमें से वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है। अब आगे चल कर लोग संपूर्णतया एक वेद भी पढ़ न सके, किंतु उसकी अनेक शाखाओं में से सिर्फ एक ही, तो फिर उन गोत्रों के लोगों ने शाखा का व्यवहार करना शुरू किया। सूत्रों का तो सिर्फ यही अर्थ हैं कि उन वेदों की उन-उन शाखाओं में कहे गए कर्मों की विधि और उनके अंगों के क्रम आदि के विचार के लिए ऋषियों ने जिन-जिन श्रौत या गृह्य सूत्रों का निर्माण किया है, उन्हीं के अनुसार विभिन्न गोत्रों की पद्धतियाँ तैयार की गई है और उन्हीं के अनुसार कर्म-कलाप होते हैं। हरेक वेदों के ये सूत्र विभिन्न ऋषियों द्वारा बनाए गए हैं। जैसे यजुर्वेद का कात्यायन ने बनाया है, सामवेद का गोभिल ने, ऋग्वेद का आश्‍वलायन ने और अथर्ववेद का कौशिक ने। और भी ऋषि हैं जिनके सूत्र वेदों की शाखाओं पर हैं। हरेक ऋषि ने अपनी ही शाखा का सूत्र ग्रन्थ बनाया है। हरेक वेद या उसकी शाखा के पढ़नेवाले किसी विशेष देवता की आराधना करते थे। वही उनके देवता कहे गए। इसी तरह तुरंत पहचान के लिए उनके बाहरी व्यवहार में भी कुछ अन्तर रखा जाता था। जैसे कोई शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। इसी प्रकार पूजा के समय प्रथम कोई बायाँ पाँव धोता या धुलाता था और कोई दाहिना। बस वही व्यवहार अब तक कहने मात्र को रह गया है और वही पाद कहलाता है। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और बायाँ ही पाद और विष्णु देवता हों। इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा, दाहिना पाद और शिव देवता। कहीं-कहीं शिखा और पाद में शायद उलट-पलट है। परंतु वह हमारे जानते काल पा कर भूल से बदल गया होगा। क्योंकि जब और बातों में नियम हैं तो यहाँ भी एक ही नियम लागू होना चाहिए। इसी तरह सामवेदियों की कौथुमी शाखा और गोभिल सूत्र एवं यजुर्वेदियों की माध्यंदिनीय शाखा और कात्यायन सूत्र हैं। चारों वेदों के चार उपवेद भी है और उनका भी व्यवहार पाया जाता है। यजुर्वेद का धानुर्वेद, ऋग्वेद का आयुर्वेद, सामवेद का गांधर्व वेद और अथर्ववेद का अर्थवेद वा अर्थशास्त्र है।

किस गोत्र का कौन वेद हैं, इसमें इस समय बड़ी गड़बड़ी है, कारण व्यवहार और संप्रदाय हर प्रदेश में कुछ न कुछ बदल गए हैं। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में पाँच गोत्रों का और कहीं-कहीं छह का सामवेद बताया है। वे पाँच कश्यप, काश्यप, वत्स, शांडिल्य और धनंजय हैं और छठां कौशिक हैं। परंतु इसके विपरीत मैथिलों में सिर्फ एक शांडिल्य का ही सामवेद लिखा है शेष गोत्रों का यजुर्वेद ही। हालाँकि उनकी एक वंशावली में, जो पिलखबाड़ ग्राम के पंजीकार श्री जयनाथ शर्मा की लिखी है, लिखा है कि :

कश्यपौ वत्सशांडिल्यौ कौशिकश्‍च धनंजय:।

षडेते सामगा विप्रा: शेषा वाजसनेयनि:॥

इससे पूर्व के छह गोत्र सामवेदी सिद्ध होते हैं। कान्यकुब्ज वंशावली में लिखते हैं कि पाँच ही सामवेदी हैं, कौशिक नहीं :

कश्यप: काश्यपो वत्स: शांडिल्यश्‍च धनंजय:।

पंचैते साम गायन्ति यजुरधयायिनोऽपरे॥

यह बात असंभव-सी भी मालूम होती है कि सिर्फ शांडिल्य ने ही सामवेद का प्रचार किया और दूसरे किसी भी ऋषि ने नहीं। इससे पाँच या छह गोत्रों का ही सामवेद मानना ठीक हैं। इसलिए त्यागी, पश्‍चिम, जमींदार या भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में भी इसी के अनुसार संस्कार आदि और प्रचार होना चाहिए। गौड़, जिझौतिया वगैरह में भी इसी का प्रचार है।

आजकल एक गोत्र पाया जाता है जिसका उल्लेख पुराने ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलता। वह है कविस्त, काविस्त अथवा कावित्स। अत्रि के एक गण के ऋषि का नाम गविष्ठिर है। संभव है इसी का विपर्याय हो गया हो। लेकिन प्रवर में भेद है।

प्रवरों के विषय में बड़ा मतभेद और वाद-विवाद है। एक प्रवर तो सिर्फ चार प्रचलित गोत्रों में है। वसिष्ठ का वासिष्ठ शुनक का शौनक, मित्रायुव का बाधय्रश्‍व और अगस्त्य का आगस्त्य। कश्यप का ही सिर्फ दो प्रवर है, देवल और असित। मगर इनके भी तीन प्रवर लिखे हैं। इसी प्रकार पाँच प्रवर गर्ग, सावर्णि, वत्स, भार्गव, भरद्वाज, भारद्वाज, जमदग्नि और गौतम के हैं। मगर तीन प्रवर भी इनके लिखे हैं। हरेक गोत्रों के प्रवरों की जितनी संख्या हो उतनी ग्रंथि जनेऊ में दी जाती है।

कुछ प्रसिद्ध गोत्रों के प्रवर आदि नीचे लिखे हैं :

(1) कश्यप,

(2) काश्यप के काश्यप, असित, देवल अथवा काश्यप, आवत्सार, नैधु्रव तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण ये हैं - जैथरिया, किनवार, बरुवार, दन्सवार, मनेरिया, कुढ़नियाँ, नोनहुलिया, तटिहा, कोलहा, करेमुवा, भदैनी चौधरी, त्रिफला पांडे, परहापै, सहस्रामै, दीक्षित, जुझौतिया, बवनडीहा, मौवार, दघिअरे, मररें, सिरियार, धौलानी, डुमरैत, भूपाली आदि।

(3) पराशर के वसिष्ठ, शक्‍ति, पराशर तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण एकसरिया, सहदौलिया, सुरगणे हस्तगामे आदि है।

(4) वसिष्ठ के वसिष्ठ, शक्‍ति, पराशर अथवा वसिष्ठ, भरद्वसु, इंद्र प्रमद ये तीन प्रवर हैं। ये ब्राह्मण कस्तुवार, डरवलिया, मार्जनी मिश्र आदि हैं। कोई वसिष्ठ, अत्रि, संस्कृति प्रवर मानते हैं।

(5) शांडिल्य के शांडिल्य, असित, देवल, तीन प्रवर हैं। दिघवैत, कुसुमी-तिवारी, नैनजोरा, रमैयापांडे, कोदरिए, अनरिए, कोराँचे, चिकसौरिया, करमहे, ब्रह्मपुरिए, पहितीपुर पांडे, बटाने, सिहोगिया आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(6) भरद्वाज,

(7) भारद्वाज के आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज अथवा आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन प्रवर हैं। दुमटिकार, जठरवार, हीरापुरी पांडे, बेलौंचे, अमवरिया, चकवार, सोनपखरिया, मचैयांपांडे, मनछिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(8) गर्ग।

(9) गार्ग्य के आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन अथवा धृत, कौशिक मांडव्य, अथर्व, वैशंपायन पाँच प्रवर हैं। मामखोर के शुक्ल, बसमैत, नगवाशुक्ल, गर्ग आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(10) सावर्ण्य के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या सावर्ण्य, पुलस्त्य, पुलह तीन प्रवर हैं। पनचोभे, सवर्णियाँ, टिकरा पांडे, अरापै बेमुवार आदि इस गोत्र के हैं।

(11) वत्स के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या भार्गव, च्यवन, आप्नवान तीन प्रवर हैं। दोनवार, गानामिश्र, सोनभदरिया, बगौछिया, जलैवार, शमसेरिया, हथौरिया, गगटिकैत आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(12) गौतम के आंगिरस बार्हिस्पत्य, भारद्वाज या अंगिरा, वसिष्ठ, गार्हपत्य, तीन, या अंगिरा, उतथ्य, गौतम, उशिज, कक्षीवान पाँच प्रवर हैं। पिपरामिश्र, गौतमिया, करमाई, सुरौरे, बड़रमियाँ दात्यायन, वात्स्यायन आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(13) भार्गव के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, तीन या भार्गव, च्यवन आप्नवन, और्व, जायदग्न्य, पाँच प्रवर हैं, भृगुवंश, असरिया, कोठहा आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(14) सांकृति के सांकृति, सांख्यायन, किल, या शक्‍ति, गौरुवीत, संस्कृति या आंगिरस, गौरुवीत, संस्कृति तीन प्रवर हैं। सकरवार, मलैयांपांडे फतूहाबादी मिश्र आदि इन गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(15) कौशिक के कौशिक, अत्रि, जमदग्नि, या विश्‍वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक तीन प्रवर हैं। कुसौझिया, टेकार के पांडे, नेकतीवार आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(16) कात्यायन के कात्यायन, विश्‍वामित्र, किल या कात्यायन, विष्णु, अंगिरा तीन प्रवर हैं। वदर्का मिश्र, लमगोड़िया तिवारी, श्रीकांतपुर के पांडे आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(17) विष्णुवृद्ध के अंगिरा, त्रासदस्यु, पुरुकुत्स तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के कुथवैत आदि ब्राह्मण हैं।

(18) आत्रेय।

(19) कृष्णात्रेय के आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्‍व तीन प्रवर हैं। मैरियापांडे, पूले, इनरवार इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(20) कौंडिन्य के आस्तीक, कौशिक, कौंडिन्य या मैत्रावरुण वासिष्ठ, कौंडिन्य तीन प्रवर हैं। इनका अथर्ववेद भी है। अथर्व विजलपुरिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(21) मौनस के मौनस, भार्गव, वीतहव्य (वेधास) तीन प्रवर हैं।

(22) कपिल के अंगिरा, भारद्वाज, कपिल तीन प्रवर हैं।

इस गोत्र के ब्राह्मण जसरायन आदि हैं।

(23) तांडय गोत्र के तांडय, अंगिरा, मौद्गलय तीन प्रवर हैं।

(24) लौगाक्षि के लौगाक्षि, बृहस्पति, गौतम तीन प्रवर हैं।

(25) मौद्गल्य के मौद्गल्य, अंगिरा, बृहस्पति तीन प्रवर हैं।

(26) कण्व के आंगिरस, आजमीढ़, काण्व, या आंगिरस, घौर, काण्व तीन प्रवर हैं।

(27) धनंजय के विश्‍वामित्र, मधुच्छन्दस, धनंजय तीन प्रवर हैं।

(28) उपमन्यु के वसिष्ठ, इंद्रप्रमद, अभरद्वसु तीन प्रवर हैं।

(29) कौत्स के आंगिरस, मान्धाता, कौत्स तीन प्रवर हैं।

(30) अगस्त्य के अगस्त्य, दाढर्यच्युत, इधमवाह तीन प्रवर हैं। अथवा केवल अगस्त्यही।

इसके सिवाय और गोत्रों के प्रवर प्रवरदर्पण आदि से अथवा ब्राह्मणों की वंशावलियों से जाने जा सकते हैं।

होम की साधारण विधि इस प्रकार है :

सभी होम के प्रारंभ में सात प्रायश्‍चित आहुतियाँ पाँच पंचवारुणी कुल बारह आहुतियाँ दी जाती है। वह इस प्रकार है :

(1) ओं प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये न मम।

(2) ओं इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय न मम।

(3) ओं अग्नये स्वाहा इदमग्नये न मम।

(4) ओं सोमाय स्वाहा इदं सोमाय न मम।

(5) ओं भू: स्वाहा इदमग्नये न मम।

(6) ओं भुव: स्वाहा इदं वायवे न मम।

(7) ओं स्व: स्वाहा इदं सूर्याय न मम।

इसके बाद नीचे लिखा मन्त्र पढ़ कर जल छिड़के, या केवल मन्त्र ही पढ़ दे :

यथा वाण महाराणां कवचंवारकं भवेत्। तद्वद्दैवोपघातानां शांतिर्भवति वारिका। शांतिरस्तु पुष्टिरस्तु वृद्धिरस्तु यत्पापं तत्प्रतिहतमस्तु द्विपदे चतुष्पदे सुशांतिर्भवतु।

फिर पंचवाणी से होम करे :

(1) ओं त्वन्नोअग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठा। यजिष्ठो वद्दितम: शोशुचानो विश्‍वा द्वेषांसि प्रमुमुग्धयस्मत्स्वाहा इदमग्नीवरुणायाभ्यां न मम।

(2) ओं सत्वन्नोऽअग्नेवमोभवीती नेदिष्ठो अस्या उषसोव्युष्टौ। अवयक्ष्वनोवरुण-रंराणो वीहि मृडीकं सुहवो न एधिस्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

(3) ओं अयाश्‍चाग्येस्यनभि शस्तिपाश्‍च सत्वमित्तवमयाअसि। अयानो यज्ञं वहास्ययानो धोहि भेषजं स्वाहा इदमग्नये न मम।

(4) ओं येते शतं यं सहस्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्‍वे मुंचन्तु मरुत: स्वर्का: स्वाहा इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्‍वेभ्यो देभ्यो मरुद्‍भय: स्वर्केभ्यश्‍च न मम।

(5) ओं उदुत्तामं वरुणपाशमस्मदवाधामं विमध्यमं श्रथाय। अथावयमादित्यव्रते तवानागसोऽअदितये स्याम स्वाहा इदं वरुणाय न मम।

इसके बाद थोड़ा जल गिरा कर नवग्रह आदि देवताओं के नाम ले कर और जिस देवता का होम करना हो उसका भी नाम ले कर स्वाहा शब्द के साथ चतरुथ्यंत उच्चारण कर के आहुतियाँ दे और अन्त में 'ओं अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा इदमग्नये स्विष्टकृते न मम' पढ़ कर आहुति दे और पूर्णाहुति करे। होम के आरंभ में संकल्प कर के होम शुरू करे और अन्त में पूर्णाहुति का संकल्प करे। यदि दूसरा आदमी होम करनेवाला हो तो भी संकल्प स्वयं पढ़ना चाहिए और 'इदं प्रजापतये न मम' इत्यादि प्रतिमन्त्र के अन्त में स्वयं बोलना चाहिए और उसी के साथ आहुति छोड़नी चाहिए, न कि 'स्वाहा' के साथ। इनका नाम त्याग है और इसके बोलने का अधिकार केवल यजमान को ही है। इसके बिना आहुति अधूरी रह जाती है।


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भाटिया महाजन की की गोत्र
पंडित हरिदत के अनुसार भाटिया महाजन के 7 गोत्र जो अनेक उपसखाये रही जो निमं प्रकार है
1 परासर गोत्र
1 राय गाजरिया 2 राय पञ्चलोडिया 3 राय पलिजा 4 राय गगला 5 राय सराकी 6 राय सोनी 7 राय सुफला 8 राय जीया 9 राय मोगला 10 राय घघा 11 राय रीका 12 राय जयधन 13 राय कोढ़िया 14 राय कोवा 15 राय रडिया  16 राय कजराया 17 राय सीजवाला 18 राय जियाला 19 राय मलन 20 राय धवा 21 राय धिरण 22 राय जगता 23 राय निशात

2 साणस गोत्र
राय दुत्या 2 राय जब्बा 3 राय बबला 4 राय सुअडा 5 राय धावन  6 राय डंडा 7 राय ठगा 8 राय कंधिया 9 राय उदेसी 10 राय बधुच 11 राय बलाए

3 भारद्वाज गोत्र
राय हरिया 2 राय पदमसी 3 राय मेद्या 4 राय चान्दन 5 राय खियारा 6 राय थुल 7 राय सोढिया 8 राय बोडा 9 राय मोछा 10 राय तम्बोल 11 राय लाख्वंता 12 राय ढककर 13 राय भुद्रिया 14 राय मोटा 15 राय अनगढ़ 16 राय ढ़ढाल 17 राय देग्चंदा 18 राय आसर

4 सुधर वंश गोत्र
1 राय सपटा 2 राय छाछेया 3 राय नगड़ 4 राय बावला 5 राय परमला 6 राय पोथा 7 राय पोणढग्गा 8 राय मथुरा

5 मधुवाधास गोत्र
1 राय वैद 2 राय सुरया 3 राय गूगल गाँधी 4 राय नए गाँधी 5 राय पंचाल 6 राय फुरास गाँधी 7 राय परे गाँधी 8 राय जुजर गाँधी 9 राय प्रेमा 10 राय बीबल 11 राय पोवर

6 देवदास गोत्र
1 राय रमैया 2 राय पवार 3 राय राजा 4 राय परिजिया 5 राय कपूर 6 राय गुरु गुलाब 7 राय ढाढार 8 राय करतारी 9 राय कुकण

7 ऋषी वंशी
1 राय मुल्तानी 2 राय चमुजा 3 राय करण गोना 4 राय  देप्पा

भाटिया साहूकारी के लिए जहा प्रसिद्ध रहे है वही धर्मात्मा के रूप में प्रख्यात होने का गौरव उन्हें प्राप्त है । वे जिस क्षत्र में रहे उन्होंने धर्मशालाये , पाठशालाये , मंदिर , ज लाशय आदि का निर्माण करवाकर जनहित का परिचय दिया । ये भाटी वंश से उत्पन होने के कारण गौरव को अभी तक संजोये हुए है । भाटिया व्यापारी भारत तक ही नहीं सीमित रहे बल्कि समुन्द्र पार कर अरब और अफ्रीका देशो में भी गए । और वहा अपना नाम कमाया । ये जब समुन्द्र पार करते तब माल असबाब की सुरक्षा के लिए जहाजो पर 18 से 24 टोपे लगाते । 300 वर्ष पूर्व इन्होने बसरेमें गोविन्द्रय का मंदिर बनवाया । सत्रु जब उसको ध्वस्त करने लगे तो गोविन्द्रय की मूर्ती मस्कट में लाकर स्थापित की । मुख्यतः ये हाथी दांत , महिदान , कोड़ा , कोड़ी , गेंडे का चमड़ा , और सीप आदी वस्तुओ का का व्यापार करते थे । अनेक भाटिया वल्लभाचार्य सम्प्रदाई के अनुयायी है । मांडवी के मानजी जीवा ( कच्छ के दीवान ) सेठ मुरारजी गोकुलदास ( मुंबई की कोंसिल के सदस्य )सेठ मुलजि ( द्वारका के मंदिर बनवाया ) सेठ विसरा माउजी , सेठ मानजी , सेठ तेजपाल , सेठ जीवराज , बालुके आदि भाटिया के नाम उलेखनीय है ।
लगातार ..............
जय श्री कृष्णा

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भाटियो की सम्पूर्ण शाखाएँ
                             भाटियो की सम्पूर्ण शाखाएं
१. अभोरिया भाटी- बालबंध(बाळद) के पुत्र एवं राजा भाटी के अनुज अभेराज के वंशज अभोरिया भाटी कहलाये जो वर्तमान में पंजाब में है |
२.जेहा भाटी - राजा भाटी के अनुज जेह के वंशज जेहा भाटी कहलाये |
३.सहराव भाटी-राजा भाटी के अनुज सहरा के वंशज सहराव भाटी कहलाये | ये भाटी पंजाब में रहे |
४.भैंसडेचा भाटी-राजा भाटी के अनुज भेंसडेच के वंशज |
५.लधड-राजा भाटी के अनुज लधड के वंशज |
६.जीया - राजा भाटी के अनुज  जिया के वंशज |
७.जंझ-राजा भूपत के पुत्र जांझंण के वंशज |
८.अतेराव -अतेराव राजा भूपत के पुत्र अतेराव के वंशज
९.धोतड-राव मूलराज (मारोठ )प्रथम के पुत्र घोटड के वंशज |
१०.सिधराव-राव उदेराव मारोठ के बेटे सिधराव के वंशज |
११.गोगली -राव मंझणराव के पुत्र गोपाल के पुत्र |
१२.जेतुंग -राव तनुराव के पुत्र जेतुंग के वंशज | जेतुंग का विकमपुर पर अधिकार रहा | जेतुंग के बेटे गिरिराज ने गिरजासर गाँव (नोख ) बसाया | जेतुंग के पुत्र रतंनसी और चाह्डदे ने वीकमपुर पर अधिकार जमाया | वीकमपुर उस समय वीरान पड़ा था | फलोदी के सेवाडा गाँव और जोधपुर जिले के बड़ा गाँव मै जेतुंग भाटियो की बस्ती है |उसके अलावा भी कई कई गाँवो में जेतुंग भाटियो के घर मिलेंगे |
१३.छैना और छींकण -रावल सिद्ध देवराज के पुत्र छेना के वंशज |
१५ -लोवा ,बुधरा ,और पोह्ड-रावल मंध के बेटे रायपाल के वंशजो से लोवा,बुधरा ,और पोह्ड भाटी की शाखाएँ अंकुरित हुयी | बुधरा खरड क्षेत्र में रहे |
१६.सिधराव ११ - रावल बाछु (बछराज)रावल बाछू (लुद्र्वा ) के पुत्र सिधराव bhati कहलाये |सिधराव ने लुद्र्वा से सिंध में जाकर सिधराव गाँव बसाया जो बाद में हिंसार के नाम से जाना गया | इनके वंशक्रम में स्च्चाराव ,बल्ला ,और रत्ना हुए | रत्ना व् जग्गा ने मंडोर के प्रतिहारो से पांच सो ऊंट छीनकर अपनी शक्ति का परिचय दिया |
१७.पाहू bhati -रावल वछराज के पुत्र ब्प्पराव के बेटे पाहू के वंशज | पाहू भाटियों ने पहले वीकमपुर फिर पुगल पर अधिकार किया | जनकल्याण के लिए कई कुए खुदवाये जो पाहुर कुए कहलाये | पाहू भाटी वागड़ ने वागड़सर (नोख ) बसाया | मांड में दो गाँव पाहू भाटियों के है | मारवाड़ ,में डावरा,तिंवरी ,केलावा ,खुर्द और अनवाणा में और जेसलमेर में मेघा इसके अलावा भी कई गाँवो में पाहू भाटी है |
१८.अणधा-रावल वछराज के बेटे इणधा के वंशज |
१९;मूलपसाव-रावल वछराव के पुत्र मूलपसाव के वंशज |
२०.राहड-महारावल विजय राज लान्झा के बेटे राहड के वंशज |खडाल में तीन और देरासर के निकट २० गाँव थे | अमरकोट की सीमा पाकिस्तान की सीमा पर भाई कई गाँव है | इसके अलावा बीकानेर में भरेसर के समीप वैरसल और जसा में राहड भाटीहै |
२१.हटा -महारावल विजयराज लान्झा के पुत्र हटा के वंशज हटा bhati कहलाये |हटा bhati सिहडानो ,करडो ,और पोछिनो क्षेत्र में रहे |
२२.भिंया bhati -महारावल विजयराज लान्झा के पुत्र भीव के वंशज भिन्या भाटी कहलाये |
२३.वानर -महारावल सालवाहण के पुत्र वादर के वंशज | जेसलमेर के डाबलो गाँव इनके पट्टे में रहा |
२४.पलासिया -महारावल सालवाहण(सलिवाहन ) के बेटे हंसराज के वंशज पलासिया | महरावल के वंशजो ने बद्रीनाथ की पहाड़ियों में अपना राज्य स्थापित कर उसका नाम पहाड़ी रखा | वहां के bhati निसंतान म्रत्यु हो जाने पर हंसराज को गोद लीया गया | हंसराज जब वहा जा रहे थे तब मार्ग में पलाशव्रक्ष के निचे उसकी राणी ने एक बच्चे को जन्म दिया| उसका नाम पलाश रखा | हंसराज के बाद वह उतराधिकारी बना और उसके वंशज पलासिया कहलाये |
२५.मोकळ-महारवल सालिवाहंण के बेटे मोकल के वंशज मोकल | ये पहले जेसलमेर में रहे फिर मालवा में जाकर बस गए वहां अपने परिश्रम से उद्योगपति के रूप में विशिष्ट पहचान कायम की | आर्थिक द्रष्टि से स्थति उतम रही |
26.मयाजळ-महारावल सलिवाहंन के पुत्र सातल के वंशज मयाजळ कहलाये | म्याजलार इनका गाँव हे जेसलमेर में इनके आलावा सिंध में है |
२७;जसोड़ -महारावल कालण के पुत्र पालण के पुत्र जसहड के वंशज | जसहड के पुत्र दुदा जैसलमेर की गद्दी पर बैठे और शाका कर अपना नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गए | पूर्व में गाँव लाठी और ३५ गाँव जसोड़ भाटियों के थे फिर महार्वल ने हस्तगत कर लिये | देवीकोट में लक्ष्मण ,वाणाडो,मदासर गाँव इनकी जागीरी में रहे | इसके आलावा छोडिया व् राजगढ़ (देवीकोट ) इनकी भोम रहे | राजगढ़ गाँव फिर बिहारी दसोतों भाटियों की जागीरी रहा | मदासर गाँव के कुम्हारों पर ब्राह्मण अत्याचार करते थे | कुम्हारों द्वारा अनुरोध पर जसोद यहाँ आकर बसे | बड़ी सिर्ड (नोख ) पर भी पहले जसोड़ भाटियो का अधिकार था | जैसलमेर में २४ गाँवो (जसडावटी) के अतिरिक्त मारवाड़ में भी कई ठिकाने रहे है |

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सिरमुर हिमाचलप्रदेश,पंजाब पटियाला और उतरप्रदेश में भाटियों की साखएं
 :: हिमाचल प्रदेश में भाटी ::
PIC1जैसलमेर से भाटियों की ऐक साखा उतर में ऊपर पहाड़ों में चली गयी थी | उस साखा ने वहां दो राज्य १. सिरमोर २. बालसन स्थापित किये थे | जिनका उधर जाना करीब वि. सं. ११६२ तथा १०९५ मानते है | सिरमोर राज्य की राजधानी नाहन थी | राज्य का क्षेत्रफल १०४६ किमी. था | यहाँ के शासक को अंग्रेजी राज्य द्वारा 11 तोपों की सलामी दी जाती थी | जयपुर की वर्तमान साहिबा पद्मिनी देवी जो सिरमोर की राजकुमारी है |













   ::  पंजाब में भाटी ::
जैसलमेर से भाटियों की ऐक और साखा 13 वीं शताब्दी में चली गयी थी | जैसलमेर के राव जैसल के तीसरे पुत्र राय हेम छोटे से झगड़े के बाद पंजाब चले गए थे | उस साखा ने वहां जाकर सिख धर्म,ग्रहण कर लिया | इस साखा में खेवानाम का ऐक व्यक्ति हुआ | जिनका पुत्र सिन्धु हुआ | जिससे उसके वंशज संधू कहलाये | इस वंश में फूल नामक व्यक्ति पैदा हुआ | जिनको मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने चौधराईन दी १६२२ इ. में इसका देहांत हो गया | इसके बड़े पुत्र की ओलाद ने नाभा और जींद के राज्य थे | नाभा राज्य १७६३ ई. में कायम हुआ था | इन्होने लार्डलेख को बड़ी सहायता दी थी | फूल के छोटे पुत्र का लड़का ओलासिंह हुआ उसने बाहुबल से १७५३ ई. के करीब पटियाला राज्य कायम किया | इस राज्य का रकबा ५९४२ वर्ग किमी. था | ये तीनों राज्य फूल के वंशज होने से फूलकिया स्टेट कहलाती थी | पटियाला के राजा भूपेन्द्र सिंह बड़े प्रसिद्ध हुए | उनके पुत्र यादवेन्द्र सिंह इटली में भारत के राजदूत रहे | इनके पुत्र पार्लियामेंट में सदस्य रहे | तथा पंजाब में अकाली दल के मंत्री मंडल में रहे | 13 वीं शताब्दी में हि ऐक और भाटियों की शाखा जैसलमेर से पंजाब गयी | इस साखा ने भी सिख धर्म अपनाया | लाहोर के पास अटले गाँव में रहने से अहलुवालिया कहलाये | इस वंश में जसा सिंह बड़ा ताकतवर हुआ | उसने ऐक राज्य कायमकिया और कपूरथला को १७८0 ईस्वी में अपनी राजधानी बनवाया | इसी खानदान में राजकुमारी अम्रताकोर थी | जवाहर लाल के मंत्री मंडल में मंत्री बनी थी | कपूरथला के वर्तमान महाराज को पाकिस्तान में युद्ध में उनकी वीरता के लिए भारत सरकार ने महावीर चक्र प्रदान किया | राजीव मंत्री मंडल में जो अरुणा सिंह थी | वह भी नाभा खानदान की हि थी | राजस्थान के बाद भाटियों की बड़ी संस्था पंजाब में हे |

वंशवली जैसल, जैसलमेर के संस्थापक
मैं
राय हेम
मैं
Jaidrath (Jundar)
मैं
खोपड़ी राव
मैं
मंगल राव
मैं
आनंद राव
मैं
Khiva राव
मीटर
rajo
(Dulkot की Saräo-Basehrä जाट मुख्यमंत्री की बेटी)
मैं
सिद्धू
(सिद्धू जाट कबीले के पूर्वज)
मैं
Bhur
मैं
बीर
मैं
Satrajat (सत्रा)
मैं
Jertha (Charta)
मैं
माहि
मैं
कला (गोला)
मैं
मेहरा
मैं
Hamira
मैं
राव बराड़
  मैं
Paur
  मैं
Bairi
मैं
Kayen (काओ)
मैं
Baho
मैं
Sanghar




  :: उतरप्रदेश जैसावत भाटी ::
उतरप्रदेश में गाजियाबाद ,बुलंदशहर ,एटा, और बरेली जिलों में भाटियों की भारी जनसँख्या हे | यह कब गए जैसलमेर से इसका तो पता नहीं चलता हे सायद जैसल के बाद हि गए जब पंजाब गए तभी यह सब जैसवत या जयसवाल कहलाते हे | रंगड़ मुसलमान भी भाटी हि थे |

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हिन्दू कुल : गोत्र और प्रवर क्या है, जानिए-1

धरती के मूल मनुष्य तो आज भी वानर, चिंपाजी और वनमानुष की श्रेणी में आते हैं? माना जाता है कि उनमें से भी कई जातियां तो लुप्त हो गई हैं जो अर्धमान जैसी थी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जिस तरह देवी-देवताओं को एक खास तरह से रचा गया था, उसी तरह मनुष्यों को भी रचा गया है। लेकिन वे मनुष्‍य कौन हैं? उपनाम में छुपा है पूरा इतिहास> > कहते हैं कि उन्हीं विशेष रंग और रूप के मनुष्यों ने अपनी शुद्धता को बरकरार रखने के लिए दूसरे मनुष्यों से रोटी-बेटी के कभी संबंध नहीं बनाए। यह संबंध नहीं बनाना ही समाज में फर्क पैदा कर गया। इस तरह समाज दो भागों में विभक्त हो गया। फिर जिन मनुष्यों ने अपने समूह से निकलकर दूसरे समूह से संबंध बनाए, उनको समाज और क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया गया। इस तरह समाज में तीन भाग हो गए। इससे समाज में फर्क बढ़ता रहा तो संघर्ष भी बढ़ता रहा।
एक तरफ वे लोग थे, जो खुद को श्रेष्ठ मानते थे और दूसरी तरफ वे लोग थे, जो खुद को अश्रेष्ठ मानने वालों के खिलाफ लड़ते थे और तीसरी ओर वे लोग थे जिन्होंने श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ की दीवार को तोड़कर एक नए समाज की रचना की और इस तरह क्षेत्र विशेष में तीन तरह की सत्ता अस्तित्व में आई। मजेदार बात यह कि जिन्होंने दीवार को तोड़कर एक नए समाज की रचना की थी उन्होंने भी अपने नियम बनाए कि वे समाज से बाहर जाकर कोई तथाकथित किसी श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ से संबंध न बनाएं। बस, इसी तरह 3 से 30 और फिर 300 होते गए। ऐसे समय में शुद्धता के प्रति समाजों में और कट्टरता बढ़ने लगी। लेकिन इन सबके बीच एक नियम काम करता था और वह था 'गोत्र' देखना।

गोत्र रखने का पहला कारण : गोत्र पहले सामाजिक एकता का आधार था, लेकिन अब नहीं। गोत्र क्यों जरूरी था? वह इसलिए कि एक ही कुल से कोई ब्राह्मण होता था तो कोई क्षत्रिय, तो कोई वैश्य और कोई शूद्र कर्म करता था। ऐसे में गोत्र से ही उसकी पहचान होती थी। अब आप ही इसकी खोज कीजिए कि क्या कौरव और पांडव क्षत्रिय थे? क्या वाल्मीकि ब्राह्मण थे? वर्तमान युग के हिसाब से कृष्ण कौन थे? यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि हमारे ऋषि-मुनि वर्तमान में प्रचलित किसी भी वर्ण या जाति के नहीं थे। पुराण तब लिखे गए जबकि जाति और वर्ण का बोलबाला था। पुराण बौद्धकाल में लिखे गए थे।

पहले तो ऐसा था कि क्षत्रिय और ब्राह्मण आपस में विवाह करते थे, लेकिन गोत्र देखकर। और यदि क्षत्रिय का गोत्र भी भारद्वाज और ब्राह्मण का गोत्र भी भारद्वाज होता था तो यह विवाह नहीं होता था, क्योंकि ये दोनों ही भारद्वाज ऋषि की संतानें हैं। पहले ये चार वर्ण रंग पर आधारित थे फिर कर्म पर और बौद्धकाल में ये जाति पर आधारित हो गए। जब से ये जाति पर आधारित हुए हैं हिन्दू समाज का पतन होना शुरू हो गया।

गोत्र रखने का दूसरा कारण : गोत्र को शुरुआत से ही बहुत महत्व दिया जाता रहा है। बहुत से समाज ऐसे हैं, जो गोत्र देखकर ही विवाह करते हैं। आपने विज्ञान में पढ़ा होगा गुणसूत्र (Chromosome) के बारे में। गुणसूत्र का अर्थ है वह सूत्र जैसी संरचना, जो संतति में माता-पिता के गुण पहुंचाने का कार्य करती है।

गुणसूत्र की संरचना में दो पदार्थ विशेषत: संमिलित रहते हैं- (1) डिआक्सीरिबोन्यूक्लीइक अम्ल (Deoxryibonucleic acid) या डीएनए (DNA), तथा (2) हिस्टोन (Histone) नामक एक प्रकार का प्रोटीन। इसकी व्याख्या बहुत विस्तृत है। खैर..

प्रत्येक जोड़े में एक गुणसूत्र माता से तथा एक गुणसूत्र पिता से आता है। इस तरह प्रत्येक कोशिका में कुल 46 गुणसूत्र होते हैं जिसमें 23 माता व 23 पिता से आते हैं। जैसा कि कुल जोड़े 23 है। इन 23 में से एक जोड़ा लिंग गुणसूत्र कहलाता है। यह होने वाली संतान का लिंग निर्धारण करता है अर्थात पुत्र होगा या पुत्री।

यदि इस एक जोड़े में गुणसूत्र xx हो तो संतान पुत्री होगी और यदि xy हो तो संतान पुत्र होगी। परंतु दोनों में x समान है, जो माता द्वारा मिलता है और शेष रहा वो पिता से मिलता है। अब यदि पिता से प्राप्त गुणसूत्र x हो तो xx मिलकर स्त्रीलिंग निर्धारित करेंगे और यदि पिता से प्राप्त y हो तो पुल्लिंग निर्धारित करेंगे। इस प्रकार x पुत्री के लिए व y पुत्र के लिए होता है। इस प्रकार पुत्र-पुत्री का उत्पन्न होना माता पर नहीं, पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y गुणसूत्र पर निर्भर होता है।

तो महत्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ, क्योंकि y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत हैं‍ कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है। बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य था, जो हमारे ऋषियों ने जान लिया था। यह पूर्णत: एक वैज्ञानिक पद्धति थी। वैज्ञानिक कहते हैं कि गुणसूत्रों के बदलावा से कई तरह की बीमारियों का विकास होता है। इसलिए विवाह के दौरान जहां गोत्र देखा जाता है वहीं ज्योतिष पद्धति अनुसार गुणों का मिलान भी होता है।

वर्तमान के वैज्ञानिक गुणसूत्रों को बदलने का प्रयोग कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए पहले पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के गुणसूत्रों में बदलावा करके एक नई जाति बनाने का प्रयास किया है। मनुष्य के गुण सूत्रों के हेर-फेर से जो परिणाम सामने आए उनसे स्पष्ट है कि बिगाड़ने में अधिक और बनाने में कम सफलता मिली है। जारी...
  ।।यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥-गीता अर्थ : सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं॥4॥> > भावार्थ : वैदिक धर्म द्वारा बताए गए देवी और देवताओं को छोड़कर जो व्यक्ति यक्ष, पिशाच, राक्षस आदि को पूज रहे हैं वे सभी रजोगुणी हैं और जो लोग भूत-प्रेत, अपने पूर्वजों, गुरुओं आदि को पूज रहे हैं वे तमोगुण हैं। ये सभी मरने के बाद उन्हीं के लोकों में जाकर उनके जैसे ही हो जाएंगे।
विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती है। इसीलिए उन सभी का संक्षिप्त विवरण आवश्यक हैं।

पहले वर्ण, जाति या समाज नहीं होते थे। समुदाय होते थे, कुल होते थे, कुटुम्ब होते थे। कुल देवता होते थे। एक कुटुम्ब के लोग दूसरे कुटुम्ब में विवाह करते थे। विवाह करते वक्त सिर्फ गोत्र की पूछताछ होती थी। विवाह के मंत्रों में आज भी गोत्र का उच्चारण करना होता है। आजकल हम जो जातिभेद, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि समाज के अवाला हजारों भेद देखते हैं वे सभी पिछले 1800 वर्षों के संघर्ष और गुलामी का परिणाम है। इसका अलावा यह लंबी परंपरा का परिणाम है।

कुल देवता : प्रत्येक कुल और कुटुम्ब के लोगों के कुल देवता या देवी होती थी। उनके कुलदेवी के खास स्थान पर मंदिर होते थे। सभी कहीं भी रहे लेकिन वर्ष में एक बार उनको उक्त मंदिर में आकर धोक देना होती थी। कुलदेवी के मंदिर से जुड़े होने से उस कुल का व्यक्ति कई पीढ़ीयों के बाद में भी यह जान लेता था कि यह मेरे कुल का मंदिर या कुल देवता का स्थान है।

इस तरह एक ही कुल समूह के लाखों लोग होने के बावजूद एक स्थान और देवता से जुड़े होने कारण अपने कुल के लोगों से मिल जाते थे। कुल मंदिर एक तरह से खूंटे से बंधे होने का काम करता था और उसके देवी या देवता भी इस बात का उसे अहसास कराते रहते थे कि तू किस कुल से और कहां से है। तेरा मूल क्या है। उस दौर में किसी भी व्यक्ति को अपने मूल को जानने के लिए इससे अच्छी तकनीक ओर कोई नहीं हो सकती थी। आज भी हिन्दुओं के कुल स्थान और देवता होते हैं। यह एक ही अनुवांशिक संवरचना के लोगों के समूह को एकजुट रखने की तकनीक भी थी।

आजकल ये संभव है कि किसी खुदाई में मिली सौ साल पहले मरे किसी इंसान की हड्डी को वैज्ञानिक, प्रयोगशाला में ले जाकर उसके डीएनए की जांच करें और फिर आपके डीएनए के साथ मेलकर के बता दें कि वे आपके परदादा की हड्डी है या नहीं। इसी तरह उस दौर में व्यक्ति खुद ही जान लेता था कि मेरे परदादा के परदादा कहां और कैसे रहते थे और वे किस कुल के थे।

इसी तरह हजारों साल तक लोगों ने अपने तरीके से अपने जेनेटिक चिह्नों और पूर्वजों की याद को गोत्र और कुल के रूप में बनाए रखा। इन वंश-चिह्नों को कभी बिगड़ने नहीं दिया, कभी कोई मिलावट नहीं की ताकि उनकी संतान अच्छी होती रहे और एक-दूसरे को पहचानने में कोई भूल न करें। आज भी हिन्दू यह कह सकता है कि मैं ऋषि भार्गव की संतान हूं या कि मैं अत्रि ऋषि के कुल का हूं या यह कि मैं कश्यप ऋषि के कुटुम्ब का हूं। मेर पूर्वज मुझे उपर से देख रहे हैं।

रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३५॥-गीता

यदि आपके कुल का एक भी व्यक्ति अच्छा निकल गया तो समझे की वह कुल तारणहार होगा और यदि बुरा निकल गया तो वह कुलहंता कहलाता है। कुलनाशक के लिए गीता में विस्तार से बताया गया है कि वह किस तरह से मरने के बाद दुर्गती में फंसकर दुख पाता है। जिन लोगों ने या जिनके पूर्वजों ने अपना कुल, धर्म और देश बदल लिया है उनके लिए 'अर्यमा' और 'आप:' नामक देवों ने सजा तैयार कर रखी है। मृत्यु के बाद उन्हें सच का पता चलेगा। जारी...

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भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं



भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से
वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |







३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |










४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |







५. इष्टदेव
श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |

६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद |  इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |

८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

9.
ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |

११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा |

१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |

13.
पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14
पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |

15.
नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |

16.
वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.
राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.
माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.
विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है






२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21.
राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.
भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश  द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |
खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं,  संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है | भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

                                ::
छतीस वंश ::
१ दस चन्द्रवंश        २ दस सूर्य वंश         ३ बारह ऋषि वंश     ४ चार अग्नि वंश

                                  ::
चंद्रवंशी ::
१ तुंवर    २ यादव  ३ यवन  ४  चंदेल   ५ इदु  असा  ६ बेही    ७  तावणी   ८  जामड़ा  ९ गोड़    १०  झाला

                                 ::
सुर्यवंश ::
१ गेहलोत  २ कछावा  ३ शुक्रवार  ४ गायक वाड़   ५ बड़गुजर ६ बनाकर ७ डाबी  ८ टाक  ९ रायजादा १० राठौर 

                                ::
अग्निवंश ::
१      सोलंकी                २ चौहान             ३ पड़िहार                    ४ परमार

                               ::
ऋषि वंश ::
 
१ सिंगलआद २ आदपडिहार ३ ब्रह्मपांचल ४ भेटिया सीर ५ लुहावत ६ गोरखा ७ गावा ८ दीखबला ९ जनुवार १० अबतआखा ११ पैजवार १२ भुराजिया


 
कवि चंदबरदाई के कथनानुसार

सूर्य वन्श की शाखायें:-
१. कछवाह२. राठौड ३. मौर्य ४. सिकरवार५. सिसोदिया ६.गहलोत ७.गौर ८.गहलबार ९.रेकबार १०. बडगूजर ११. कलहश १२. कटहरिय़ा
चन्द्र वंश की शाखायें:-
१.जादौन२.भाटी३.तन्वर४ चन्देल ५ .छोंकर६.होंड७.पुण्डीर८.कटैरिया९.·´दहिया १०.वै स
अग्निवंश की शाखायें:-
१.चौहान २.सोलंकी ३.परिहार ४.पमार ५. बिष्ट
ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर२.दीक्षित३.दायमा४.गौतम५.अनवार (राजा जनक के वंशज)६.विसेन७.करछुल८.हय९.अबकू तबकू १०.कठोक्स ११.द्लेला १२.बुन्देला 

यदुवंशी भाटियों का पोरानिका इतिहास आदिनारयण से श्री कृष्ण जी तक
ऐसे  तो  ईश्वर  की  स्रष्टि  अनन्त और  इसमें  अनन्त  राजा हो  गए  है ।   परन्तु  यहाँ  एक ऐसे  पुरातन राजवंश  का  वर्णन  किया  जा  रहा  है।   जिसके  परंपरागत वंशज  आज  तक  इस  भारत  भूमी पर कही  ना कही  राजधानिया  समयानुसार  स्थापित  करते  हुए  बराबर  राज्य  करते  चले    रहे है ।  यह  पुरातन राजवंश  चन्द्रवंश  (यदुवंश ) के  नाम  से  प्रख्यात  है। 

१.आदिनारायण :-  जो अनादी स्वरूप माने जाते है

 
देवमाता अदिति :-
अदिति संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ '' असीम '' है | दक्षप्रजापति की पुत्री थी | और कश्यप ऋषि को ब्याही थी | अदिति को देवमाता कहा गया है | मित्र -वरुण,आदित्य ,रूद्र ,इंद्र आदी इन्ही की संताने बताये गए है | आधुनिक द्रष्टि से देखे तो अन्तरिक्ष से इनका बोध होता है जिसमे सभी आदित्य भ्रमण किया करते है |

पोराणिक कथाओं में देवमाता अदिति
पोराणिक कथाओं के वैदिक युग में असीम या अनन्त का मानवीकता रूप और अदीत्य नामक स्वर्ण के देवताओं के समूह की माता आदिम देवी के रूप में इन्हें विष्णु सहित कई देवताओं की जननी माना गया है | अदिति आकाश को अवलंब प्रदान करती है | सभी जीवों का पालन और प्रथ्वी का पोषण करती है | इस रूप में इन्हें कभी -कभी गाय के रूप में भी दर्शाया जाता है |

देवमाता अदिति के पुत्र
आमतोर पर उनके पुत्र आदित्यों की संख्या १२ बताई जाती है | वरुण इनके प्रमुख है | और नकी हि तरह उन्हें ऋतू (देवी श्रेणी ) का रक्षक माना जाता है | ऐक श्लोक में उनके नाम वरुण ,मित्र आर्यमन ,दक्ष ,भग और अंश बताये गए है | इनमे से कई बार दक्ष को हटाकर इंद्र ,सवित्र (सूर्य ) और धातु को शामिल कर ,लिया जाता है | कभी -कभी इस शब्द के व्यापक अर्थ में सभी देवताओं को शामिल कर लिया जाता है | जहाँ आदित्यों की संख्या १२ मानी गयी है | वहां उन्हें वर्ष के १२ सोर महीनो से जोड़ा जाता है | एकवचन के रूप में आदित्य ,सूर्य का ऐक नाम है |
वेदों में देवमाता अदिति
वेड में अदिति को सीमाहीन बताया गया है | पुराण तो आकाश ,वायु ,माता ,पिता ,सर्व देवता ,सर्व मानव ,भूत ,वर्तमान ,भविष्य सब कुछ अदिति को हि बताते है | कश्यप ऋषि की दो पत्निया थी - अदिति और दिति | अदिति के गर्भ से देवता और दिति के गर्भ से देत्या उत्पन्न हुए |
श्री कृष्णा की माता देवकी को '' अदिति का अवतार '' बताया जाता है
२. ब्रह्मा जी :- इनकी उत्पति नारायण के नाभिसरोवर के कमल से हुयी | श्रष्टि रचयिता यही है |
३.अत्री :- ब्रहमाजी के पुत्र अत्री ऋषि हुए जो गुणों के कारन अपने पिता ब्रहमाजी के समान थे | अत्री सम्पूर्ण ऋग्वेद के दस मंडलों में प्रविभक्त है | प्रत्येक मंडल के मंत्रो के ऋषि अलग-अलग है | उनमे से ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा महर्षि अत्री है | इसलिए यह मंडल '' आत्रेय मंडल '' कहलाता है | इस मंडल में ८७ सूक्त है | जिनमे महर्षि अत्री द्वारा विशेष रूप से अग्नि ,इंद्र ,मरुत ,विश्वेदेत तथा सविता आदी देवों की महनीय स्तुतियाँ ग्रंथित है | इंद्रा तथा अग्नि देवता के महनीय कर्मों का वर्णन है | अत्री ब्रह्मा के पुत्र थे जो उनके नेत्रों से उत्पन्न हुए थे | ये सोम के पिता थे जो इनके नेत्रों से आविर्भूत हुए थे | इन्होने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था | इन दोनों के पुत्र दतात्रेय थे | इन्होने अलर्क ,प्रह्लाद आदी को अन्वीक्ष्की की सिक्षा दी थी | पांडू पुत्र भीष्म जब शर-शैया पर पड़े थे उस समय ये उनसे मिलने गए थे | पांडूवंशी राजा परीक्षित जब प्रायोपवेश का अभ्यास कर रहे थे तो ये उन्हें देखने गए थे | पुत्रोत्प्ती के लिए इन्होने ऋक्ष परवत पर पत्नी के साथ तप किया था | इन्होने त्रिमुर्तियों की प्राथना की थी जिनसे त्रिवेदी के अंश रूप में दत (विष्णु ) दुर्वासा (शिव )और सोम (ब्रह्मा ) उत्पन्न हुए थे | इन्होने दो बार इक्ष्वाकुवंशी राजा प्रथू को घोड़े चुराकर भागते हुए इंद्र को दिखाया था तथा हत्या करने को कहा था | ये वेवस्वत युग के मुनि थे | मंत्राकर के रूप में इन्होने उतानपाद को अपने पुत्र के रूप में ग्रहण किया था | इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या थी \ परशुराम जब ध्यानवश्थित रूप में था उस समय ये उनके पास गए थे | इन्होने श्राध द्वारा पितरों की आराधना की थी और सोम की राजक्ष्मा रोग से मुक्त किया था | ब्रहमा के द्वारा स्रष्टि की रचना के लिए नियुक्त किये जाने पर इन्होने ''अनुपम ' तक किया था जब की शिव इनसे मिले थे | सोम के राजयूस यज्ञ में इन्होने होता का कार्य किया था | त्रिपुर के विनाश के लिए इन्होने शिव की आराधना की थी |
वैदिक मन्त्रद्रष्टा
महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। पुराणों में इनके आविर्भाव का तथा उदात्त चरित्र का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है। वहाँ के वर्णन के अनुसार महर्षि अत्रि ब्रह्माजी के मानस-पुत्र हैं और उनके चक्षु भाग से इनका प्रादुर्भाव हुआ। सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि का परिगणन है। साथ ही इन्हें 'प्रजापति' भी कहा गया है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनुसूया जी हैं जो कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री हैं। देवी अनुसूया पतिव्रताओं की आदर्शभूता और महान दिव्यतेज से सम्पन्न हैं। महर्षि अत्रि जहाँ ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं वहीं देवी अनुसूया पतिव्रता धर्म एवं शील की मूर्तिमती विग्रह हैं। भगवान श्री राम अपने भक्त महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया की भक्ति को सफल करने स्वयं उनके आश्रम पर पधारे। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया। उन्होंने अपने पतिव्रत के बल पर शैव्या ब्राह्माणी के मृत पति को जीवित कराया तथा बाधित सूर्य को उदित कराकर संसार का कल्याण किया। देवी अनुसूया का नाम ही बड़े महत्त्व का है। अनुसूया नाम है परदोष-दर्शन का गुणों में भी दोष बुद्धि का और जो इन विकारों से रहित हो वही 'अनुसूया' है।इसी प्रकार महर्षि अत्रि भी 'अ त्रि' हैं अर्थात वे तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस)- से अतीत है गुणातीत हैं। इस प्रकार महर्षि अत्रि-दम्पति एवं विध अपने नामानुरूप जीवन यापन करते हुए सदाचार परायण हो चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। अत्रि पत्नी अनुसूया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और 'मंदाकिनी' नाम से प्रसिद्ध हुई।

·                     सृष्टि के प्रारम्भ में जब इन दम्पति को ब्रह्मा जी ने सृष्टिवर्धन की आज्ञा दी तो इन्होंने उस ओर उन्मुख न हो तपस्या का ही आश्रय लिया। इनकी तपस्या से ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन दिया और दम्पति की प्रार्थना पर इनका पुत्र बनना स्वीकार किया। अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय,ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए।
वेदों में उपर्युक्त वृत्तान्त यथावत नहीं मिलता है कहीं-कहीं नामों में अन्तर भी है। ऋग्वेद में 'अत्रि:सांख्य:' कहा गया है। वेदों में यह स्पष्ट रूप से वर्णन है कि महर्षि अत्रि को अश्विनी कुमारों की कृपा प्राप्त थी। एक बार जब ये समाधिस्थ थे तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार यन्त्र में डाल दिया और आग लगाकर इन्हें जलाने का प्रयत्न किया किंतु अत्रि को उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था। उस समय अश्विनी कुमारों ने वहाँ पहुँचकर इन्हें बचाया। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 51वें तथा 112वें सूक्त में यह कथा आयी है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में महर्षि अत्रि के दीर्घ तपस्या के अनुष्ठान का वर्णन आया है और बताया गया है कि यज्ञ तथा तप आदि करते-करते जब अत्रि वृद्ध हो गये तब अश्विनी कुमारों ने इन्हें नवयौवन प्रदान किया। ऋग्वेद के पंचम मण्डल में अत्रि के वसूयु, सप्तवध्रि नामक अनेक पुत्रों का वृत्तान्त आया है जो अनेक मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि रहे हैं। इसी प्रकार अत्रि के गोत्रज आत्रेयगण ऋग्वेद के बहुत से मंत्रो के द्रष्टों है

ऋग्वेद के पंचम 'आत्रेय मण्डल' का 'कल्याण सूक्त' ऋग्वेदीय 'स्वस्ति-सूक्त' है, वह महर्षि अत्रि की ऋतम्भरा प्रज्ञा से ही हमें प्राप्त हो सका है यह सूक्त 'कल्याण-सूक्त', 'मंगल-सूक्त' तथा 'श्रेय-सूक्त' भी कहलाता है। जो आज भी प्रत्येक मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों तथा पूजा, अनुष्ठानों में स्वस्ति-प्राप्ति, कल्याण-प्राप्ति,अभ्युदय-प्राप्ति, भगवत्कृपा-प्राप्ति तथा अमंगल के विनाश के लिये सस्वर पठित होता है। इस मांगलिक सूक्त में अश्विनी, भग, अदिति, पूषा, द्यावा, पृथिवी, बृहस्पति, आदित्य, वैश्वानर, सविता तथा मित्रा वरुण और सूर्य- चंद्रमा आदि देवताओं से प्राणिमात्र के लिये स्वस्ति की प्रार्थना की गयी है। इससे महर्षि अत्रि के उदात्त-भाव तथा लोक-कल्याण की भावना का किंचित स्थापना होता है।इसी प्रकार महर्षि अत्रि ने मण्डल की पूर्णता में भी सविता देव से यही प्रार्थना की है कि 'हे सविता देव आप हमारे सम्पूर्ण दु:खों को-अनिष्टों को, शोक-कष्टों को दूर कर दें और हमारे लिये जो हितकर हो कल्याणकारी हो उसे उपलब्ध करायें।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की भावना अत्यन्त ही कल्याणकारी थी और उनमें त्याग, तपस्या, शौच, संतोष, अपरिग्रह, अनासक्ति तथा विश्व कल्याण की पराकष्ठा विद्यमान थी। एक ओर जहाँ उन्होंने वैदिक ऋचाओं का दर्शन किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रजा को सदाचार और धर्माचरणपूर्वक एक उत्तम जीवनचर्या में प्रवृत्त होने के लिये प्रेरित किया है तथा कर्तव्या-कर्तव्य का निर्देश दिया है। इन शिक्षोपदेशों को उन्होंने अपने द्वारा निर्मित आत्रेयधर्मशास्त्र में उपनिबद्ध किया है। वहाँ इन्होंने वेदों के सूक्तों तथा मन्त्रों की अत्यन्त महिमा बतायी है। अत्रिस्मृति का छठा अध्याय वेदमन्त्रों की महिमा में ही पर्यवसित है। वहाँ अघमर्षण के मन्त्र,सूर्योपस्थान का यह 'उदु त्यं जातवेदसं'मन्त्र, पावमानी ऋचाएँ, शतरुद्रिय, गो-सूक्त, अश्व-सूक्त एवं इन्द्र-सूक्त आदि का निर्देश कर उनकी महिमा और पाठ का फल बताया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की वेद मन्त्रों पर कितनी दृढ़ निष्ठा थी। महर्षि अत्रि का कहना है कि वैदिक मन्त्रों के अधिकारपूर्वक जप से सभी प्रकार के पाप-क्लेशों का विनाश हो जाता है। पाठ कर्ता पवित्र हो जाता है, उसे जन्मान्तरीय ज्ञान हो जाता है। जाति-स्मरता प्राप्त हो जाती है और वह जो चाहता है वह प्राप्त कर लेता है। अपनी स्मृति के अन्तिम 9वें अध्याय में महर्षि अत्रि ने बहुत सुन्दर बात बताते हुए कहा है कि यदि विद्वेष भाव से वैरपूर्वक भी दमघोष के पुत्र शिशुपाल की तरह भगवान का स्मरण किया जाय तो उद्धार होने में कोई संदेह नहीं फिर यदि तत्परायण होकर अनन्य भाव से भगवदाश्रय ग्रहण कर लिया जाय तो परम कल्याण में क्या संदेह?
इस प्रकार महर्षि अत्रि ने अपने द्वारा द्रष्ट मन्त्रों में, अपने धर्मसूत्रों में अथवा अपने सदाचरण से यही बात बतायी है कि व्यक्ति को सत्कर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिये।

o        चन्द्रदेव
चन्द्रमा से मनुष्य बहुत प्रभावित रहा है। जीवन के हर पहलू में चन्द्रमा को उसने स्वयं से जोड़ कर रखा। मनुष्य ने विभिन्न लक्षणों के आधार पर चन्द्रमा के बहुत से वैकल्पिक नाम तो रखे ही साथ ही विशिष्ट कुल-परंपरा से भी चन्द्रमा को जोड़ा।
चंद्रवंशी
ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र नाम हैं जैसे चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है। जिसका नाम 'सोम' है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियां थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियां दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियां भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई। एक अन्य कथा के अनुसार चन्द्रमा ने वृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण किया था जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा खुद को चंद्रवंशी कहते थे।
अन्य नाम
इसी तरह चंद्र से जुड़ा एक अन्य नाम सोमवंशी भी है। चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है जिसका प्रयाग पर शासन था। ब्राह्मणों में एक उपनाम होता है आत्रेय अर्थात अत्रि से संबंधित या अत्रि की संतान। चूंकि चंद्र अत्रि ऋषि की संतान थे इसलिए आत्रेय भी चंद्रवंशी ही हुए। चंद्रवंशियों का एक अन्य उपनाम अत्रिज भी होता है जिसका अर्थ हुआ अत्रि से जन्मा यानी चंद्र। एक अन्य गोत्र होता है चांद्रात अर्थात चंद्र से संबंधित। अत्रि को ब्रह्मा के नेत्रों से उत्पन्न बताया गया है। इसी तरह अत्रि पुत्र सोम या चन्द्रमा को भी अत्रि के नेत्रों से जन्मा बताया गया है इसलिए उसे अत्रिनेत्रज भी कहा जाता है। चन्द्रमा का एक अन्य नाम है सुधाकर या सुधांशु। इस नाम में भी जल तत्त्व की उपस्थिति नज़र आ रही है जो चन्द्रमा की पहचान है। सुधा का अर्थ भी अमृत, मधुर तरल ही होता है। इसका अर्थ जल भी है। पृथ्वी पर अगर अमृत है तो वह जल ही है। सुधा को देवताओं का पेय कहा गया है जो अमृत ही होता है। सोम का दूसरा नाम भी अमृत और जल ही है। सुधांशु का अर्थ हुआ जिसकी किरणें अमृत समान हैं। सुधाकर यानी अमृत मय करने वाला। सुधा का एक अर्थ श्वेत-धवल-उज्ज्वल भी होता है। चांदनी ऐसी ही होती है। सुधा चूने की सफ़ेदी या ईंट को भी कहते हैं। सुधा यानी जल, आर्द्रता, शीतलता का भंडार होने की वजह से इसका एक नाम सुधानिधि भी है। रात्रि को प्रकाशित करने की वजह से इसका एक नाम निशापति भी है।
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चंद्रमा
चंद्रमा अत्रि मुनि का पुत्र था। चन्द्रमा को ब्रह्मा का अंशावतार भी माना जाता है। प्रजापति ब्रह्मा ने उन्हें औषधियों का स्वामी बनाया। चंद्रमा ने अपने राज्य की महिमा बढ़ाने के लिए एक बार राजसूय यज्ञ किया।तत्पश्चात वे इतनामदोन्मत होगये कि देवताओं के गुरु वृहस्पति कीतारा नामक सुंदर पत्नी का हरण कर लिया। देव ऋषि वृहस्पति ने अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करने के बहुतप्रयास किये किन्तु सफल नहीं हुए।तब बीच बचाव के उद्देश्य से वे देवताओं के राजा इंद्र के पास गए। देवेन्द्र ने चंद्रमा को समझाते हुएतारा को लौटाने के लिए कहा किन्तु वेनहीं माने। तदोपरांत ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं ने भी उनको बहुत समझाया. परन्तु चंद्रमा ने वृहस्पति की पत्नी को लौटने से इंकार कर दिया. इस पर देवराज इंद्र सेना लेकर चंद्रमा से लड़ने को आमादा हो गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। वेदेवगुरु वृहस्पति से द्वेष मानते थे जिस कारण चंद्रमा की सहायता के लिए सेना लेकर वे मैदान में आ डेट। शुक्राचार्य की सेना में जम्भ, कुम्भजैसे भयंकर दैत्य शामिल थे। तारा के लिए देवताओं और असुरों में घोर संग्राम छिड़ गया। देवासुर संग्राम इतना भयंकर था कि उससे संसार के समस्त प्राणी क्षुब्ध हो गए। वे सब इकट्ठे होकर ब्रह्मा जी की शरण में गए। तब भगवान ब्रह्माजी ने बीच-बचावकरते हुए शुक्र, रूद्र, देव, दानव सब में समझौता करा दिया। तारा पुनः देवऋषि वृहस्पति को मिल गयी। तारा उस समय गर्भवती थी। उसको गर्भावस्था में देख वृहस्पति क्रोधित हो गए और धमकाते हुए कहा -"मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है, इसे शीघ्र दूर करो।" . वृहस्पति के ऐसा कहने पर तारा ने झाड़ियों के मध्य जाकर गर्भ को गिरा दिया। जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में त्यागा वह अत्यंत सुंदर तेजधारी बालक निकला। वह इतना रूपवान था कि उसके समक्ष समस्त देवताओं का तेज फीका प्रतीत होता था। उस सुंदर एवं तेजधारी बालक को देख कर चंदमा और वृहस्पति दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा। उसको पाने कीउन दोनों की इस उत्सुकता को देख कर देवताओं के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। तब वे तारा से पूछने लगे-"देवी! सत्य बताओ तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न यह पुत्र किसका है?" किन्तुलज्जावश तारा चुपचाप यथावत खड़ी रही और कुछ बोल नहीं सकी। देवताओं के बार-बार पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया. इस पर तारा का वह बालक कुपित होकर कहने लगा- " शीघ्र पूर्ण सत्य वर्णन करो नहीं तो मै तुम्हे भयंकर शाप दे दूंगा।" ब्रह्मा जी ने उस बालक को शाप देने से मना किया और स्वयं तारा से सच्चाई पूछने लगे। तब तारा बोली - "यह बालक चन्द्र्मा का पुत्र है।" तारा के मुख से यह शब्द सुनकर चंद्रमा बहुत प्रसन्न हुए और उस बालक को गले लगाते हुए बोले- "अति उत्तम वत्स! तुम बहुत बुद्धिमान हो इस लिए मैं तुम्हारा नाम "बुध" रखता हूँ।" इस प्रकार चंद्रमा का यह पुत्र बुध के नाम से विख्यात हुआ।

५. बुध
बुध चन्द्रमा का पुत्र था। वह बहुत रूपवान और शक्तिशाली था। उनका जन्म तारा की कोख से हुआ। तारा देवताओं के गुरु वृहस्पति की पत्नी थी। एक बार चन्द्रमा ने, जो महर्षि अत्रि के पुत्र थे, वृहस्पति की इस पत्नी का हरण करके अपनी पत्नी बना लिया। इंद्रआदि देवों के समझाने के उपरान्त जब चंद्रमा ने तारा को नहीं लौटाया तो इंद्र सेना लेकर युद्ध के लिए आमादा हो गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। वे देवगुरु वृहस्पति से द्वेष रखते थे। इस कारण चंद्रमा की सहायता के लिए अपनी विशाल एवं शक्तिशाली सेना लेकर इंद्र से युद्ध करने के उद्देश्य से शुक्राचार्य भी मैदान में आ डेट। परिणाम स्वरुप तारा के लिए इस देव-असुर संग्राम आरम्भ हो गया और धीरे-धीरे उसने भयंकर रूप धारण लिया और चारो तरफ भय व्याप्त हो गया। तब लोग बीच-बचाव करने के लिए ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्मा जी इस संग्राम को समाप्त करवाने में सफल हुए। उनके समझाने पर चंद्रमा ने तारा को लौटा दिया जिससे वह पुनः अपने पति वृहस्पति के पास आगयी। इस दौरान तारा गर्भवती हो गई थी। वृहस्पति को जब यह ज्ञात हुआ कि उसकी पत्नी दुसरे का गर्भ धारण करके आई है तब वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने तारा को कठोर शब्दों में बहुत भला-बुरा कहा और आज्ञा देते हुए उससेकहा - "मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है तुम इसे जल्द दूर करो।" तब तारा ने झाड़ियों के मध्य जाकर गर्भ को गिरा दिया। लेकिन जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में गिराया वह बहुत सुन्दर रूपवान तेजस्वी बालक निकला। उसके सुन्दर रूप को देखकर वृहस्पति और चंद्रमा दोनों ललचा गए और दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा। इससे दोनों में विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ गया की उनको बीच बचाव के लिए पुनः देवताओं की शरण में जाना पड़ा। देवताओं ने तारा से यह जानने का भरसक प्रयत्न किया कि उसके गर्भ से उत्पन्न यह बालक किसका है,किन्तु लज्जावश तारा चुप-चाप खड़ी रही और कुछ बोल नहीं सकी। ब्रह्मा ने भी उसको बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। देवतावो के के बहुत पूछने पर भी तारा ने अपना मुंह नहीं खोला। उसके गर्भ से उत्पन्न बालक भी उस समय वहां मौजूद था। अपनी माता के इस आचरण से वह क्रोधित हो गया। क्रोध भरे कठोर शब्दों में डांटते हुए उसने अपनी माता से कहा -" तुम शीघ्र सारी सच्चाईबता दो नहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा।" बालक के मुख से यह शब्द सुनकर सभी अचंभित रह गए। शाप देने के बाद तारा का अहित होगा -यह सोच करब्रह्मा जी उस बालक को ऐसा करने से रोक दिया और उसकी माता को पुनः समझाने का प्रयास किया। इस बीच अपनेपुत्र के फटकारने से तारा भयभीत हो चुकी थी। इसलिए उसने ब्रह्मा की बात मान ली और सब कुछ सच सच बता दिया। उसने कहा - "मेरे गर्भ से उत्पन्न यह बालक चंद्रमा का पुत्र है।" अपने पुत्र की बुद्धिमत्ता देखकर चंद्रमा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंनेउसकी बहुत प्रशंसा की और गले लगाया। वे बोले -"वत्स! तुम बहुत बुद्धिमान हो इसलिए मैं तुम्हारा नाम 'बुध' रखताहूँ" तब से वह बालक चन्द्रमा का पुत्र कहलाया और बुध के नाम से ख्याति प्राप्त की। बुध को चंद्रमा का पुत्र माना गया इसलिए वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। यदि उनको महर्षि वृहस्पति का पुत्र माना जाता तो वे ब्रह्मण कहलाते। बुध का स्वरुप अत्यंत सुंदर और मनमोहक था। इसी कारण महर्षि वृहस्पति तारा को गर्भवती देख कर पहले तो क्रोधित हो गए, परन्तु जन्म के बाद जब देखा कि यहतो सुन्दर सुवर्णमय रूपवान बालक है तब वह मुग्ध हो गए तथा उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बुध का विवाह सूर्यवंशी राजकुमारी इला से हुआ था। इला का जीवन परिचय नीचे की पक्तियों में देखें।
बुध की पत्नी इला का परिचय :-
ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में ज्येष्ठ महर्षि मरीचि थे। मरीचि केएक पुत्र का नाम कश्यप था। कश्यप के पुत्र का नाम विवस्वान था।विवस्वान का अर्थ सूर्य है।विवस्वान(सूर्य) के मनु नामक एक पुत्र हुआ इला इसी मनु की पुत्री थी। मनु की अनेक संताने थीं, किन्तु उनमें इक्ष्वाकु नामक पुत्र और इला नामक पुत्री मुख्य माने जाते हैं। इक्ष्वाकु के वंशज सूर्यवंशी क्षत्रिय और उसकी बहन इला के वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। सूर्य वंश में भगवान श्रीराम का और चन्द्रवंश में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। इला का जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ और विवाह चंद्रवशी क्षत्रिय कुल में बुध से हुआ । बुध चंद्रमा का पुत्र था। इसी कुल में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ और उनके वंशज यदुवँशी क्षत्रिय कहलाये ।पुराण आदि ग्रंथों में वर्णन आता है कि इला पहले सुदुयम्न नामक पुत्र था। एक दिन वह शिकार करते हुए मेरु पर्वत की तलहटी में जा पहुंचा | भगवान शंकर के शाप के कारण उस वन में जाने वाला हर पुरुष स्त्री हो जाता था। इस कारण सुदुयम्न भी अपने अनुचरों सहित स्त्री हो कर वन में विचरने लगा । उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास बहुत से स्त्रियों से घिरी हुई एक रूपवान रमणी विचर रही है। उन्होंने इच्छा जाहिर की क़ि यह सुन्दरी मुझे मिल जाये। उस सुन्दरी ने भी बुध को अपना पति बनाने की इच्छा प्रकट की। इस प्रकार बुध ने इला से विवाह कर लिया और कुछ समय बाद उनके परुरवा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऐसा वर्णन भी आता है क़ि गुरु वशिष्ठ द्वारा भगवान शंकर की आराधना करने पर भगवान् शंकर ने सुद्युम्न को एक महीना पुरुष व एक महीना स्त्री रहने का वर दिया|
६.पुरुरवा :-
पुरुरवा का जन्म महाराज बुध के द्वारा इला के गर्भ से हुआ। वे परम तेजस्वी,दानशील,यज्ञकरता, पराक्रम दिखानेवले, सत्यभाषी, और पवित्र विचार वाले पुरुष थे। उनका रूप अत्यंत सुंदर था। वे अपने समय मे तीनो लोको मे अनुपम यशस्वी थे | पुरुरवा की माता इला मनु की पुत्री थीं।उनको मनु से प्रतिष्ठान नामक नगर का राज्य मिला था। इला ने अपने पुत्र पुरुरवा को प्रतिष्ठान का राजा बनाया। तब से प्रतिष्ठान नगरी बहुत काल तक चंद्रवंशी राजाओ की राजधानी ऱ्ही। उर्वशी नामक अप्सरा पुरुरवा की पत्नी थी। उर्वशी कौन थी, इसका संक्षिप्त विवरण आगे की पंक्तियों में दिया गया है।
उर्वशी का परिचय :-
उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा थी। साहित्यिक ग्रंथों और पुराण आदि मेंवर्णन आता है कि उर्वशी की उत्पत्ति नारायण की जंघा से हुई और वह सौंदर्य की मूर्ति थी। पद्म पुराण के अनुसार इनका जन्म कामदेव के उरू से हुआ। श्रीमदभागवत के अनुसार वह स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। कहा जाता है कि ब्रह्मा के शाप के कारण उर्वशी को मनुष्य-लोक मे आना पडा।यद्यपि शाप के कारण देवलोक छोड़कर उसको मनुष्य-लोक मे आना पडा और इससे उनका दुखी होना भी स्वाभाविक था, तथापि जब उनको ज्ञात कुआ कि पुरुष शिरोमणी पुरुरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुंदर है तव वह धैर्य धारण कर उनके पास चली आयी। उर्वशी के सौन्दर्य कोदेख कर राजा पुरुरवा भी हर्ष से खिल उठे। उर्वशी ने महाराज पुरुरवा को अपना पति चुना, परंतु इसके लिए उसने राजा के सामने तीन शर्तें रखीं, जो इस प्रकार हैं - "मै केवल घी खाउंगी, मैथुन के अलावा अन्य किसी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूंगी, मेरे सकाम होने पर ही आप सहवास करेंगे। मेरे द्वारा स्वर्गलोक से लाये हुये दो भेड है, मै उन्हें पुत्र के समान स्नेह करती हू। ये भेंड हमेशा मेरी पलंग के साथ बांधे रहेंगे और आपको इनकी रक्षा करनी पडेगी। जब तक आप इन शर्तो का पालन करते रहेंगे तब तक ही मै आपके पास रहूंगी।" स्वर्ग की उस अप्सरा के सौन्दर्य को देखकर से राजा इतना मुग्ध हो गया था कि उसकी हर बात उसे माननी पडी। इस प्रकार वह श्रेष्ठ अप्सरा महाराज पुरुरवा के यहां रहने लगी। उर्वशी को राजा मे आसक्त होकर रहते हुये उनसठ वर्ष बीत गये, तब गन्धर्वो को उसकी चिंता सताने लगी। उर्वशी को देवताओ मे फिर किस प्रकार लाया जाय-वे इसका उपाय सोचने लगे। तब विश्वावसु नामक एक गंधर्व ने कहा- " मै उर्वशी और राजा पुरुरवा के बीच हुये अनुबंध को भली-भाँति जानता हूँ । राजा की प्रतिज्ञा भंग होने पर उर्वशी उनको छोड देगी। राजा की प्रतिज्ञा तोडने का उपाय भी मै जनता हू।" सब गन्धर्वों की सहमति से इस काम को सिद्ध करने के लिये वह कुछ सहायको को साथ लेकर वह राजा के नगर प्रतिष्ठानपुर गया। गन्धर्वों ने वहां रात के अंधेरे मे उर्वशी की पलंग से बंधे एक भेड को चुरा लिया। उर्वशी को इसका पता चला तो उसने राजा से कहा-"राजन! मेरे बच्चे को चोर उठा ले गये।" रात का अंधेरा था और राजा निःवस्त्र लेटा था। वह यह सोचकर नही उठा कि उर्वशी उसे नंगा देख लेगी और उसकी प्रतिज्ञा भंग हो जयेगी। थोडी देर बाद गन्धर्वो ने उर्वशी का दूसरा भेड भी चुरा लिया। दूसरे भेड के चुराये जाने पर उसने राजा से कहा - "राजन! मेरे दोनो पुत्रचोरी हो गये और आप कायरो की भान्ति सोये पडे हैं. उनको बचाने का बिलकुल प्रयास नहीं किया। धिक्कार है आपके पौरुष को '" उर्वशी के इस प्रकार कटु वचन सुनकर राजा विस्तर से उठकर उन भेडो को छुडाने के लिये दौड पड़ा। गंधर्व तो यही चाहते थे। उनके लिये उचित अवसर था। उन्होने अपनी शक्ति सेभारी बिजली चमका कर रोशनी कर दी जिससे वह विशाल भवन एक साथ प्रकाशित हो गया। तब उर्वशी ने राजा का नंगा शरीर देख लिया। राजा को नंगा देखते ही उर्वशी शाप मुक्त हो गई और अंतर्धान हो वहाँ से चली गई. राजा भेडो को छुडा कर वापस आया और जबमहल मे घुसा तो उसे वहाँ उर्वशी नही मिली। इससे राजा व्याकुल हो गया और उर्वशी की खोज मे वह पृथ्वी पर जगह-जगह भटकने लगा। बहुत समय बीत जाने के बाद, एक दिन उसने उर्वशी को हैमवती नामावली पुष्करिडी मे स्नान करते हुए देखा। उस समय वह सखियो के साथ क्रीडा मग्न थी और प्रसन्नता से झूम रही थी। उसको देखकर राजा विलाप करने लगा। जब उर्वशी ने राजा को इस प्रकार विलाप करते देखा तो वह जल से बहार आयी और उससे कहा-' प्रभो! मै आपके द्वारा गर्भवती हू। निश्चय ही मेरे गर्भ से आपको संतान की प्राप्ति होगी। आपने अपना वचन नहीं निभाया। इसलिए मैं शापमुक्त हो गई। मै अब आपके साथ नहीं रह सकती। लेकिन आपकी पत्नी होने के नाते साल में एक रात्रि मै आपके साथ रहूंगी। हे राजन! इस प्रकार प्रतिवर्ष मेरे गर्भ से आपके पुत्र उत्पन्न होगे।" राजा प्रसन्न हो गया और वहां से अपने महल वापस आ गया। एक वर्ष बीतने पर उर्वशी उसके पास फिर आयी। महायशस्वी पुरुरवा उसके साथ एक रात्रि रहे। यहक्रम कई वर्षो तक अविरल चालता रहा। उर्वशी प्रतिवर्ष एक रात्रि के लियेराजा के पास आती रही। कई वर्ष बीत जाने के बाद उर्वशी ने राजा से कहा-" हे राजन! गंधर्व आपको वर देना चाहते है। इसलिए आप मेरे साथ स्वर्गलोक चलो। आप उनसे 'गन्धर्वो की समानता' वाला वरदान मांग लीजिये। गन्धर्वों की समानता प्राप्त कर लेने के बाद आप मेरे साथ स्वर्ग लोक में रह सकोगे" राजा ने वेसा ही किया और गन्धर्वो के समक्ष जाकर उनकी 'समता' का वरदान माँगा। "एवमवस्तु" कहते हुये गन्धर्वो ने एक थाली मे अग्नि लाकर पुरुरवा को दिया और कहा कि इस अग्नि से यज्ञ करने के फलस्वरूप आप हमारे लोक मे आ जाओगे। राजा अग्नि लेकर अपने नगर के ओर चल पडा। मार्ग मे एक स्थान पर अग्नि को रख कर अपने पुत्रो को साथ लेकर वह घर आ गया। कुछ दिन बाद राजा फिर वन मे अग्नि लेने गया । परंतु वहाँ उसको अग्नि नही मिली।. अग्नि के स्थान पर पीपल के एक वृक्ष को खडा देखा। पुरुरवा और उर्वशी के मेल से छ पुत्र हुए जिनके नाम , आयु,श्रतायु,सत्यायु,,रय,विजय ,और जय थे |

उसने यह बात गन्धर्वो को बताई तो गन्धर्वो ने कहा- राजन तुम पीपल की अरणी बनाकर अग्नि उत्पन्न करो। महाराज पुरुरवा ने वेसा ही किया।पीपल की अरणी से उत्पन्न अग्नि करके उससे यज्ञ किया और गन्धर्वो की समानता प्राप्त की। उसके बाद वह गंधर्व लोक पहुंच गया।कई ग्रंथो मे वर्णन आता है कि महाराज पुरुरवा ने अरणी के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित करने की कला सीखी। यह कला उस समय तक किसी अन्य व्यक्ति को ज्ञात नहीं थी।
महाराज पुरुरवा ने अपने देश भारत मे इस कला को प्रचलित किया। पुरुरवा के छः पुत्र हुये. उनके नाम इस प्रकार है। (१) आयु (२) धीमान (३) अमावसु (४) विश्वासु (५) शतायु और (६)श्रुतायु सभी ग्रंथ इनके पुत्रो की संख्या के बारे मे एक मत नही है। कई ग्रंथो मे यह संख्या सात बतायी गई तो कईयो मे नौ। पुरुरवा के एक पुत्र का नाम आयु था। वह जयेष्ट होने के साथ श्रेष्ठ भी था।पुरुरवा के बाद आयु को प्रतिष्ठान की गद्दी प्राप्त हुई। उसके वंशजों का राज्य बहुत काल तक प्रतिष्ठान मे चलता रहा।
आयु के वंशज गौरवशाली हुये।आयु के नहुष नाम का पुत्र हुआ।नहुष के ययाति नामक पुत्र हुआ।
राजा आयु
राजा आयु महाराज पुरुरवा के पुत्र थे उनका जन्म अप्सरा उर्वशी के गर्भ से हुआ था। पुरुरवा के बाद वे प्रतिष्ठान राज्य के उतराधिकारी बने। महारज आयु का विवाह राहु की पुत्री बिरजा से हुआ था। उनके नहुष, क्षत्रवृद्ध, रंभ,रजि और अनेनस नामक पांच पुत्र हुए। उनके ज्येष्ठ पुत्र नाम नहुष था। ज्येष्ठ पुत्र होने कारण नहुष राज्य के उतराधिकारी बने।
आयु पुत्र महाराज नहुष
राजा नहुष महाराजा आयु के पुत्र थे उनकी पत्नी विरजा के गर्भ से छः महाबली पुत्र उत्पन्न हुए. उनके नाम इस प्रकार है- यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियाति और कृति। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण नहुष के बाद यति प्रतिष्ठान राज्य के उत्तराधिकारी थे। किन्तु यति को राज्य की इच्छा न थी ओर वे वेराग्य को चले गये इस कारण ययाति वहाँ के राजा बने। महाराज नहुष के बारे में प्रसिद्द है। कि वे कुशल उच्चकोटि के शासनकर्ता थे। निपुण शासनकर्ता होने के कारण नहुष को कुछ समय के लिए देवताओं के राजा के रूप में इन्द्रासन पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि देवताओ के राजा इंद्र ने वृतासुर का वध कर दिया था। इस कारण इंद्र को ब्रह्म हत्या का दोष लगा। इस महादोष के प्रायश्चित के लिए वे एक सरोवर के अंदर गए और वहाँ कमल की नाली में सूक्ष्म रूप धारण करके छुप गए।इससे इंद्र का आसन खाली हो गया। देवताओ को महाराज नहुष की शासन कुशलता का ज्ञान था। ये सोचकर कि इन्द्रासन खाली न रहे इसलिए देवताओ ने मिल कर उस पर नहुष को बिठा दिया।कुछ समय तक महाराज नहुष ने तीनो लोको का शासन बड़े व्यस्थित ढंग से किया। सब जगह उनके क्रिया कलापों की प्रशंसा होने लगी। परन्तु धीरे-धीरे स्वर्ग की विलासता,नित्य सुंदर अप्सराओ के दर्शन तथा सर्वोपरि सत्ता के मद ने उनके मस्तिक को दूषित करना शुरू कर दिया। इंद्र की परम सुन्दरी साध्वी पत्नी का नाम शची था। वह बहुत सुन्दर और रूपवान थी। उसके सौन्दर्य को देखकर नहुष मोहित हो गए। वे शची को प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे। देवताओं को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा को बहुत समझाया और कहा कि उनके द्वारा ऐसी चेष्टा करना अशोभनीय है।परन्तु वे नहीं माने।इन्द्राणी को वश में करने के लिए एक दिन नहुष ने ऋषियों से पालकी उठवा कर उसके भवन की और चले।पालकी उठाकर ऋषिगण मार्ग में धीरे -धीरे चल रहे थे तो नहुष क्रोधित हो कर उन्हें जल्दी-जल्दी तेज चलने को कहा। यह नजारा देखकर पालकी ढो रहे अगस्तय मुनि ने नहुष को सांप बन जाने का शाप दे दिया। उनको पालकी से उतारकर आकाश से पृथ्वी पर गिरा दिया।इस प्रकार नहुष का पतन हो गया।

ययाति:-
ययाति राजा नहुष की रानी बिरजा के गर्भ से उत्पन्न पुत्र थे वे भारत के पहले चकर्वर्ती सम्राट हुये जिसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया॥ इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी इसलिए इनके पिता नहुष को अगस्तय मुनि आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया तथा इनके ज्येष्ठ भ्राता यति ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया।तब ययाति राजा के पद पर बैठे।उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त कर दिया और आप शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।
देवयानी के गर्भ से महाराज ययाति के यदु नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ और यदु से यदुवंश चला। महाराज ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राह्मण पुत्री थी। यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ?
देवयानी और शर्मिष्ठा कौन थी?
इसका विवरण इस प्रकार है:- शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी अति सुंदर राजपुत्री थी।राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे।देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी। ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ?
इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी हजारो सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी उस उपवन में सुंदर सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेको वृक्ष थे उसमे एक सुंदर सरोवर भी था सरोवर में सुंदर सुंदर मनमोहक कमल खिले हुए थे उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने अपने अपने वस्त्र उतारकर किनारे रख दिया और आपस में एक दूसरे पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले तो भगवान शकँर को आता देख सभी कन्याये लज्जावश दौड़ कर अपने अपने वस्त्र पहनने लगी जल्दी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली ये शर्मिष्ठा तु एक असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया?
जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है मेरे वस्त्र धारण करके तूने मेरा अपमान किया है देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा तिलमिला गयी और क्रोधित होकर देवयानी को कहा ये भिखारिन आप तूने अपने आप को क्या समझा है? तुझे कुछ पता भी है कि नही है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तू अपने बाप के साथ मेरी रसोई की तरफ देखा करती है क्या मेरे ही दिए हुए टुकडो से तेरा शरीर नहीं पला?
यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के पहने हुए कपडे छीन कर उसे नंगी ही उपवन के एक कुएं में ढकेलवा दिया देवयानी को कुएं में ढकेलकर शर्मिष्ठा सखियों को लेकर घर चली आयी।
संयोगवश राजा ययाति उस समय वन में शिकार खेलने गए हुए थे और वे उधर से गुजर रहे थे उन्हें बड़ी प्यास लगी थी पानी की खोज करते हुए वे उसी कुएं के पास गए जिसमे देवयानी को धकेल दिया गया था उस समय वह कुए में नंगी खड़ी थी राजा ययाति ने उसे पहनने के लिए अपना दुपट्टा दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर कुएं से बहार निकाल लिया कुए से बहार निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा हे वीर जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे अब कोइ दूसरा न पकडे। मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने ऐसा श्राप दिया है कि देवयानी के ऐसा कहने पर राजा न चाहते हुए भी दैव की प्रेरणा से ययाति उसकी बात मान गए इसके बाद ययाति अपने घर चले गये उधर देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था वह कह सुनाया पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचाट गया वे पुरोहिती की निंदा करते हुए तथा भिक्षा वृति को बुरी कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए यह समाचार जब वृषपर्वा ने सुना तो उनके मन में शंका हुई कि गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें तो वो ऐसा विचार करके अपने पिता के साथ गुरूजी के पास आयी और मस्तक नवाकर पैरो में गिरकर क्षमा याचना किया तब शुक्राचार्य जी बोले हे राजन आप मेरी पुत्री देवयानी को मना लो वह जो कहे उसे पूरा करो वृषपर्वा ने कहा बहुत अच्छा तब देवयानी बोलीं मै पिता की आज्ञा से जिस पति के घर जाऊं अपनी सहेलियों के साथ आपकी पुत्री शर्मिष्ठा उसके यहाँ पर दासी बनकर रहे शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा तब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया एक हज़ार सहेलियों सहित शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दिया समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी शर्मिष्ठा सहेलियों सहित दासी की भाति देवयानी की सेवा करने लगी।

शर्मिष्ठा राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?
आगे की पंक्तियों में इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी को संतान देख शर्मिष्ठा ने भी संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की| इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया| इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए|
जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले हे स्त्री लोलुप तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा ओर मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये| तब ययाति जी बोले हे ब्राह्मण श्रेष्ठ मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है|इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा|मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा ऐसा सोचकर बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्राचार्य जी बोले जाओ यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो|
यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो| तब यदु बोले पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है|इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा हे पुत्र तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|
राजा ययाति का गृह त्याग
इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है। सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे हे प्रिय मेरी तरह आचरण करने वाले की मैं एक कथा कहता हूँ इसे ध्यान पूर्वक सुनना| पृथ्वी पर मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है| एक बकरा था| वह अकेला वन में अपने प्रिय पात्र को ढूंढता फिरता था| एक दिन उसने एक कुएं में गिरी हुई एक बकरी को देखा| बकरे ने उसे बाहर निकलने का उपाय सोच अपनी सीगों से मिट्टी खोद कर वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग बनाया तथा उसी मार्ग से उसे बाहर निकाला| कुएं से बाहर निकल कर बकरी उसी बकरे से सनेह करने लगी तथा उसे अपना पति बना लिया| वह बकरा बड़ा हृष्ट-पुष्ट, जवान, व्यहारकुशल , वीर्यवान तथा मैथुन में निपुण था| जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कुएं में गिरी हुई बकरी से उसका प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध चल रहा है तो उन्होंने भी उसे अपना पति बना लिया| वह उन बकरियों के साथ कामपाश में बंधकर अपनी सुधबुध खो बैठा| कुए से निकाली हुई बकरी ने जब अपने पति दूसरी बकरोयों के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से आग बबूला हो गयी| वह उस कामी बकरे को छोडकर बड़े दुःख से अपने पलने के पास चली गयी| वह कामी बकरा भी उसके पीछे-पीछे गया परन्तु मार्ग में उसे मना न सका| उस बकरी के मालिक को जब सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अंडकोष को काट दिया| परन्तु इससे बकरी का भी बुरा होगा यह सोचकर उसने अंडकोष पुनः जोड़ दिया| अंडकोष जुड़ जाने पर वह बकरा बहुत काल तक उस बकरी के साथ विषय भोग करता रहा परन्तु काम पिपासा से कभी तृप्त नहीं हुआ| हे देवयानी! यैसे ही मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है। बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है कम नहीं होती| शरीर बूढा हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन प्रतिदिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूँगा| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया| तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में तथा यदु को दक्षिण दिशा में व तुर्वसु को पश्चिम दिशा में और अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया|पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयँ वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी| महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु व अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए

१०. यदु महाराजा ( यदुवंश के संस्थापक इन्ही से यदुवंश चला भाटी ,जडेजा ,चुदासमा, जादों )
यदुवंश के संस्थापक यदु महाराजा ययाति के पुत्र थे। उनका जन्म देवयानी के गर्भ से हुआ। यदु के वन्शज यदुवँशी कहलाए। महाराज ययाति के दो रानियाँ थी एक का नाम था देवयानी और दूसरी का शर्मिष्ठा । देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र तथा शर्मिष्टा के गर्भ से दुह्यु,अनु और पुरू नामक तीन पुत्र हुए।
ययाति के पुत्रो से जो वंशज चले वे इस प्रकार है- १.यदु से यदुवँश २.तुर्वसु से यवन ३.दुह्यु से भोज ४.अनु से म्लेक्ष ५ पुरु से पौरववँश।
यदु के नाना शुक्राचार्य ने उनके पिता ययाति को श्राप दे दिया था जिससे वे असमय भरी जवानी में वृद्ध हो गए।राजा अपने बुढ़ापे से बहुत दुखी था। यदि कोई उन्हें अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा ले लेता तो वे पुनः जवान हो सकते थे।राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को जवानी देकर बुढ़ापा लेने को कहा। किन्तु यदु ने इंकार कर दिया।तब उन्होंने दुसरे पुत्र तुर्वसु को कहा तो उसने भी इंकार कर दिया। इसी प्रकार महाराज ययाति के तीसरे और चौथे पुत्र ने भी इंकार कर दिया। तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से पुछा तो वह सहर्ष जवानी के बदले बुढ़ापा लेने को सहमत हो गया। पुरु की जवानी प्राप्त कर ययाति पुनः तरुण हो गए। तरुणावस्था मिल जाने से वे बहुत काल तक यथावत विषयों को भोग करते रहे। उस समय की परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण पिता के सन्यास लेने के बाद सिंहासन का असली हकदार यदु था। किन्तु यदु द्वारा अपनी जवानी न दिये जाने के कारण महाराजा ययाति उससे रुष्ट हो गये थे।इसलिये यदु को राज्य नही दिया। वे अपने छोटे बेटे पुरू को बहुत चाहते थे और उसी को राज्य देना चाहते थे। राजा के सभासदो ने जयेष्ठ पुत्र के रहते इस कार्य का विरोध किया।किन्तु यदु ने अपने छोटे भाई का समर्थन किया और स्वयँ राज्य लेने से इन्कार कर दिया और । इस प्रकार ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक बनाया।अन्य पुत्रों को दूर-दराज के छोटे छोटे प्रदेश सौंप दिये।
यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान मथुरा का क्षेत्र व चम्बल का तटवर्ती प्रदेश मिला।वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था। श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र हुए जिनके नाम सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।

उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्रीकृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था।इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की। अन्धक के वंशज अन्धकवंशी यादव कहलाये।अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि । वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ।अनु के पुत्र का नाम था अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ। पुनर्वसु के दो संतानें थी- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव,देववर्धन नामकचार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू,राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।
यदुवँश एक परिचय
महाराजा यदु एक चंद्रवंशी राजा थे। सोमवँश सिरोमणी सम्राट ययाति के पुत्र थे व यदु कुल के प्रथम सदस्य माने जाते हैं।उनके वंशज जो कि यादव के नाम से जाने जाते हैं यदुवंशी के नाम से भी जाने जाते हैं। भाटी ,जडेजा ,चुडासमा ,जादों और यादव इनकी मुख्या खापे जिनका विस्तार मथुरा से लेकर गजनी अफगानिस्तान से जैसलमेर तक राज्य किया | और भारत एवं निकटवर्ती देशों पाकिस्तान व अफगानिस्तान में काफी संख्या में पाये जाते हैं। उनके वंशजो में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के महानायक भगवान श्री कृष्णा महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा। इस वंश में स्वयं परमपुज्य भगवान श्री विष्णु ने क्रष्णा के रुप मे मनुष्य अवतार लिया था।
महाराज यदुकुल शिरोमणि की वँशावली पर चर्चा करते हैँ।
यदु के चार पुत्र थे- 1.सहस्त्रजित 2.क्रोष्टा 3.नल और 4.रिपुं
1.सहस्त्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे- 1.महाहय 2.वेणुहय और 3.हैहय ईनही से एक अलग वँश हैहयवँश चला। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए।
हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे बाकी सब युद्ध करते हुए परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे- शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित।
हैहय का धर्म,धर्म का नेत्र,नेत्र का कुन्ति,कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ। भद्रसेन के बाद धनक और कीर्तीकिर्य और अर्जुन
हैहयपति महाराज भद्रसेन के दो पुत्र थे- 1.दुर्मद और 2.धनक।
धनक के चार पुत्र हुए- 1.कृतवीर्य, 2.कृताग्नि, 3.कृतवर्मा व 4.कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। जिन्हे हैहयराज क्रतवीर्य अर्जुन के नाम से जाना जाता हैँ।वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट था।उसने भगवान के अंशावतार श्री दत्तात्रेयजी से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट यज्ञ,दान,तपस्या,योग, शास्त्रज्ञान,पराक्रम और विजय आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।सहस्त्रबाहु अर्जुन पचासों हज़ार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा।उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है।उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था।उसके हज़ारों पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये।
अर्जुन के बचे हुए पुत्रों के नाम थे- 1.जयध्वज 2.शूरसेन 3.वृषभ 4.मधु और 5.ऊर्जित।
अर्जुन के पुत्र जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाये।महर्षि और्व की शक्ति से सुर्यवँशी राजा सगर ने उनका संहार कर डाला।उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यदुनन्दन पुत्र 11. क्रोष्टु के पुत्र का नाम था १२. वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र 13.श्वाहि, श्वाहि का 14. रूशेकु,रूशेकु का 15. चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था16. शशबिन्दु
16.शाशिबंदु :-
वह परम योगी महान भोगैश्वर्य सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हज़ार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक एक के लाख लाख सन्तान हुई थीं।इस प्रकार उसके सौ करोड़ एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे। 17.पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था 18. धर्म।धर्म का पुत्र 19.उशना हुआ।उसने सौ अश्वमेध यज्ञकिये थे।उशना का पुत्र हुआ २०. रूचक।रूचक के पाँच पुत्र हुए उनके नाम थे-1.पुरूजित,2.रूक्म,3.रूक्मेषु,4.पृथु और5.ज्यामघ।
21.ज्यामघ :-
ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान हुई। परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्य नाम की कन्या हर लाया।जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली कपटी मेरी बैठने की जगह पर आज किसे बैठा कर लिये आ रहे हो ज्यामघ ने कहायह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।शैब्या ने मुस्कुराकर अपने पति से कहा।मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है।ज्यामघ ने कहा रानी तुम को जो पुत्र होगा उसकी यह पत्नी बनेगी। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।फिर क्या था समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भराज।उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
22.विदर्भ :-विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे।
विदर्भ के तीसरेवंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु।
बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए।
विदर्भ के आगे क्रमशः उनके पुत्र 23.क्रथ 24.कुंती 25.द्रष्टि 26.निर्वर्ती 27.दशार्ह 28.व्योम 29.जीमूत 30.विकृति 31.भीमरथ 32.नवरथ33.दशरथ 34.शकुनी 35.क्रमभी36.देवरात 37.देवक्षत्र 38.मधुत्र39.कुरुवंश 40.अनु41.पुरुहोत्र 42.आयु
सात्वत:-
यह ऐक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वतवंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे -भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवाव्रध , महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। देवावृद्ध का पुत्र ब्रभु हुआ | उनसे उपदेश लेकर चौदह हजार पैसठं मनुष्य परमपद को प्राप्त हुयें | अन्धक के चार पुत्र हुए कुकुर ,भजमान,शुची ,कम्बलबरही | महाभोज बड़ा धर्मात्मा हुआ उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए |

यदुवँशी क्षत्रियो के व्रष्णि,अन्धक व भोज ओर कुकुर यादव संघ
मधु राजा के सौ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र एक यादवराज था। इसी के कुल में श्री कृष्ण पैदा हुए थे और इसी कारण वार्ष्णेय कहलाए। इनका वंश वृष्णि वंशीय यादव कहलाता था। ये लोग द्वारिका में निवास करते थे। प्रभास क्षेत्र में यादवों के गृह कलह में यह वंश भी समाप्त हो गया। वृष्णि गणराज्य शूरसेन प्रदेश में स्थित था।वृष्णियो का तथा अंधकों का प्राचीन साहित्य में साथ साथ उल्लेख है।पाणिनि में वृष्णियों तथा अंधको का उल्लेख हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कुकुर व वृष्णियों के संघ-राज्य का वर्णन है। महाभारत में अंधक वृष्णियों का कृष्ण के संबंध में वर्णन है। इसी प्रसंग में कृष्ण को संघ मुख्य भी कहा गया है जिससे सूचित होता है कि वृष्णि तथा अंधक गण जातियों के राज्य थे।
वृष्णि राजज्ञागणस्य भुभरस्य।यह सिक्का वृष्णि-गणराज्य द्वारा प्रचलित किया गया था और इसकी तिथि प्रथम या द्वितीय शती ई.पू. है। अंधक एवं वृष्णि संघ यदुवंशियों के राजा भीम सात्वत के पुत्रों के नाम पर बने थे।कृष्ण वृष्णि थे एवं उग्रसेन और कंस अंधक थे ।
मथुरा में तीर्थंकर नेमिनाथ भी अंधक कहे गये हैं।कुछ ग्रंथों में कृष्ण को अंधक भी कहा गया है। मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियो की।
सुर्यवँशी श्री राम के पश्चात जब अयोध्या की गद्दी पर कुश थे और लव युवराज थे तब मथुरा में भीम के पुत्र अंधक राज्य करते थे । उनके बाद अंधक वंशियों का मथुरा पर अधिकार रहा था जो उग्रसेन और उनके पुत्र कंस तक कायम रहा था।
राजा व्रष्णी
भीम के दूसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।उनके वंश में उत्पन्न शूर ने शौरपुर (वर्तमान बटेश्वर) बसा कर अपना पृथक् राज्य स्थापित किया था।
राजा सूरसेन
 
वासुदेव इनके ज्येष्ठ राजकुमार और राजकुमारी प्रथा इनकी पुत्री थी |
क्यों की प्रथा राजा कुन्तिभोज की गोद आई पुत्री थी इसलिए बाद में इन्हें कुंती नाम से जाना गया |कुंती का विवाह राजा पांडू के साथ हुआ था ' युधिस्ठर अर्जुन और भीम इस रानी से उनके पुत्र थे राजा दूसरी रानी माद्री  मद्रदेश के राजा शल्व की बहन थी , यह नकुल और सहदेव जुड़वाँ भाइयों की माता थी | राजा सूरसेन के दुसरे पुत्र देवभाग के पुत्र उद्धव युवराज वासुदेव के भतीजे थे
राजा वासुदेव
राजा पांडू की रानी कुंती इनकी बहन थी | इनके दो रानिया थी रानी रोहिणी बलराम की और रानी देवकी श्री कृष्णा की माता थी | बलराम और श्री कृष्णा सगे भाई लेकिन माताए दो थीं | रानी रोहिणी हस्तिनापुर के पुरुवंशी राजा कुरु के वंशज राजा प्रदीप और उनकी रानी सुनन्दा की पुत्री थी |बलराम शेषनाग के और श्री कृष्णा विष्णु भगवान के अवतार थे |

श्री कृष्ण
विदर्भ प्रदेश में कुनणपुर के राजा भीष्मक की राजकुमारी रुकमनी श्री कृष्णा की प्रधान रानी और उनके प्रधुम्न राजकुमार की माता थी | रानी रुकमनी लक्ष्मी का अवतार थी राजकुमारी रुकमनी के पिता भीष्मक ने अपनी राजकुमारी द्वारा अपने भावी वर का चुनाव करने के लिए एक स्वय्वर का आयोजन किया ,जिसमे राजकुमारी रुकमनी के साथ विवाह के इच्छुक सभी योग्य सम्राटों ,राजाओं v अन्य कीर्तिवान प्रमुखों को स्वयंवर में आमंत्रित किया | श्री कृष्ण को भी इसी स्वयंवर में आमंत्रित किया गया था | किन्तु पद के अनुरूप राज्योचित शिष्टाचार से उनका स्वागत नही किये जाने के विरोध में उन्होंने अपना डेरा क्रम्केथ उद्यान में रखा | राजा भीष्मक द्वारा श्री कृष्ण जी की उदासीन अगवानी से देवराज इंद्र भी नाराज थे | उन्होंने उन्हे सांत्वना देने के लिए स्वर्ग से स्वयं का नृपयोग्य तामझाम क्रमकेथ उद्धान उद्धान भेजा जिसमे मेघाडम्बर छत भी था |जो छत्र आज भी जेसलमेर भाटियों के ठिकाने में अपनी सोभा आज भी बढा रहा हे | यह सब जानकर राजा भीष्मक को अपनी भूल का ध्यान आया | संकोच से भरे राजा ने उसी उधान में ही श्री कृष्ण के लिए सम्राटों के पद के अनुरूप भव्य समारोह का आयोजन किया | इस दरबार में उन्हें नजरे भेंट की गयी | सभी आगंतुकों ने स्वयं उपस्थति होकर राजकीय सम्मान से उन्हें उपहार भेंट दिए और उनके प्रति श्रधा दर्शायी |किन्तु मगध के राजा जरासंघ ने वहां समारोह में उपस्थित रहते हुए भी कृष्ण जी को अहंकार में नजर भेंट नही की क्यूँ की श्री कृष्णा जी ने उनके जंवाई राजा कंश का वध किया था |
वैदिक पुराण साहित्यो में उत्तरी पांचाल के पौरव राजा दिवोदास और उनके वंशज सुदास की विजय गाथाओं का उल्लेख मिलता है।सुदास ने हस्तिनापुर के पौरव राजा संवरण को उनके नौ साथी राजाओं की विशाल सेना सहित पराजित किया था।दस राजाओं के उस भीषण संघर्ष को प्राचीन वाग्मय में दाशराज्ञ युद्ध कहा गया है। वीरवर सुदास से पराजित होने वाले उन नौ राजाओं में एक यादव नरेश भी था।
यदुवँशियो के अंधक वृष्णि संघकी कार्यप्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक वृष्णि संघ काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था।इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था तथा चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था।ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये।प्रत्येक दल अब अपना राजनीतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा।इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी।एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था।जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है।उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे।महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में दिया गया हैँ।

श्री कृष्णदत्त वाजपेयी का अनुमान है कि यादव राजा भीम सात्वत का पुत्र अंधक रहा होगा जो सुदास के समय यादवों की मुख्य शाखा का अधिपती और शूरसेन जनपद के तत्कालीन गणराज्य का अध्यक्ष था।वह संभवत: अपने पिता भीम के समान वीर नहीं था।अंधक के वंश में कुकुर हुआ था।कुकुर की कई पीढ़ी बाद आहुक हुआ जिसके दो पुत्र उग्रसेन और देवक हुए थे।उग्रसेन का पुत्र कंस था और देवक की पुत्री देवकीथी।उग्रसेन, देवक और कंस अपने पूर्वज अंधक और कुकुर के नाम पर अंधक वंशीय अथवा कुकुर वंशीय कहलाते थे।
अंधक के भाई वृष्णि के दो पुत्र हुए जिनके नाम देवमीढूष और युधाजित थे।देवमीढूष के पुत्र श्र्वफल्क और उनके पुत्र अक्रूर थे।वृष्णि के वंशज वाष्णि वंशीय अथवा वार्ष्णेय कहलाते थे।
अंधक और वृष्णि वंशिय द्वारा शासित शूरसेन प्रदेशांतर्गत मथुरा और शौरिपुर के दोनों राज्य गणराज्य थे।उनका शासन वंश परम्परागत न होकर समय-समय पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा होता था।वे प्रतिनिधि अपने अपने गणों के मुखिया होते थे और राजा कहलाते थे।
महाभारत युद्ध से पूर्व उन दोनों राज्यों का संघ था जो कि अंधक-वृष्णि संघ' कहलाता था।उस संघ में अंधकों के मुखिया आहुक पुत्र उग्रसेन थे और वृष्णियों के शूरसेन पुत्र वसुदेव थे।उस संघीय गण राज्य का राष्ट्रपति उग्रसेन था।इस संघ राज्य के केंद्र मन्त्रियों में एक उद्धव भी थे।उग्रसेन की भतीजी देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था जिनके पुत्र भगवान कृष्ण थे।उग्रसेन के पुत्र कंस का विवाह उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली मगध साम्राज्य के अधिपति जरासंध की दो पुत्रियों के साथ हुआ था।वसुदेव की बहिन कुन्ती का विवाह कुरु प्रदेश के प्रतापी महाराजा पांडु के साथ हुआ था जिनके पुत्र सुप्रसिद्ध पांडव थे। वसुदेव की दूसरी बहिन श्रुतश्रवा हैहयवंशी चेदिराज दमघोष को ब्याही गयी थी जिसका पुत्र शिशुपाल था।इस प्रकार शूरसेन प्रदेश के यदुवँशियो का पारिवारिक संबंध भारतवर्ष के कई विख्यात राज्यों के अधिपतियों के साथ था।उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा शूरवीर और महत्त्वाकांक्षी युवक था । फिर उन्हें अपने श्वसुर जरासंध के अपार सैन्य बल का भी अभिमान था।वह गणतंत्र की अपेक्षा राजतंत्र में विश्वास रखता था। उन्होंने अपने साथियों के साथ संघ राज्य के विरुद्ध कर उपद्रव करना आरम्भ किया।अपनी वीरता और अपने श्वसुर की सहायता से उन्होंने अपने पिता उग्रसेन और बहनोई वसुदेव को शासनाधिकार से वंचित कर उन्हें कारागृह में बन्द कर दिया और आप स्वयँ अंधक-वृष्णि संघ का स्वेच्छाचारी राजा बन गया था।वह यदुवँशियो से घृणा करता था और अपने को यदुवँशी मानने में लज्जित होता था।उसने मदांध होकर प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये थे।अंत में श्री कृष्ण द्वारा उनका अंत हुआ था।
संदर्भ ग्रन्थ
1.
गजनी टू जेसलमेर हरी सिंह भाटी
२.मुह्नोत नेन्शी री ख्यात ओझा जी
3.
भाटी वंश  का गोरवमई इतिहास डॉ हुकुम सिंह भाटी
४.राजपूतो की वंशवली एवम महागाथा त्रिलोक सिंह ढाकरे




भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में  किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है ।  केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश  है  जो  5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है ।  इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम        काल 
काशी                           900 साल 
द्वारिका                      500 साल 
मथुरा                         1050 साल 
गजनी                         1500 साल 
लाहोर                           600 साल 
हंसार                            160 साल 
भटनेर                         80 साल 
मारोट                           140 साल 
तनोट                            40 साल 
देरावर                           20 साल 
लुद्र्वा                            180 साल 
जैसलमेर                         791 साल 
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध  भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है ।  जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।  208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध  हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए ।  भटनेर के तीन शाके तनोट पर  एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े  ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें  भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा  कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला  जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान  पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है ।  प्रस्तुत ब्लॉग  में प्रथम भाग ब्रह्मा से लुद्र्वा महारावल भोजदेव 165 भाटी 26 तक तथा दूसरा भाग जैसलमेर के संस्थापक महारावल जैसल 166 भाटी 27 से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह 208 भाटी 69 तक वर्णन करने की कोशिस करूँगा  
जय माँ स्वांगिया ।


भाटियो की सम्पूर्ण शाखाएँ
                             भाटियो की सम्पूर्ण शाखाएं
१. अभोरिया भाटी- बालबंध(बाळद) के पुत्र एवं राजा भाटी के अनुज अभेराज के वंशज अभोरिया भाटी कहलाये जो वर्तमान में पंजाब में है |
२.जेहा भाटी - राजा भाटी के अनुज जेह के वंशज जेहा भाटी कहलाये |
३.सहराव भाटी-राजा भाटी के अनुज सहरा के वंशज सहराव भाटी कहलाये | ये भाटी पंजाब में रहे |
४.भैंसडेचा भाटी-राजा भाटी के अनुज भेंसडेच के वंशज |
५.लधड-राजा भाटी के अनुज लधड के वंशज |
६.जीया - राजा भाटी के अनुज  जिया के वंशज |
७.जंझ-राजा भूपत के पुत्र जांझंण के वंशज |
८.अतेराव -अतेराव राजा भूपत के पुत्र अतेराव के वंशज
९.धोतड-राव मूलराज (मारोठ )प्रथम के पुत्र घोटड के वंशज |
१०.सिधराव-राव उदेराव मारोठ के बेटे सिधराव के वंशज |
११.गोगली -राव मंझणराव के पुत्र गोपाल के पुत्र |
१२.जेतुंग -राव तनुराव के पुत्र जेतुंग के वंशज | जेतुंग का विकमपुर पर अधिकार रहा | जेतुंग के बेटे गिरिराज ने गिरजासर गाँव (नोख ) बसाया | जेतुंग के पुत्र रतंनसी और चाह्डदे ने वीकमपुर पर अधिकार जमाया | वीकमपुर उस समय वीरान पड़ा था | फलोदी के सेवाडा गाँव और जोधपुर जिले के बड़ा गाँव मै जेतुंग भाटियो की बस्ती है |उसके अलावा भी कई कई गाँवो में जेतुंग भाटियो के घर मिलेंगे |
१३.छैना और छींकण -रावल सिद्ध देवराज के पुत्र छेना के वंशज |
१५ -लोवा ,बुधरा ,और पोह्ड-रावल मंध के बेटे रायपाल के वंशजो से लोवा,बुधरा ,और पोह्ड भाटी की शाखाएँ अंकुरित हुयी | बुधरा खरड क्षेत्र में रहे |
१६.सिधराव ११ - रावल बाछु (बछराज)रावल बाछू (लुद्र्वा ) के पुत्र सिधराव bhati कहलाये |सिधराव ने लुद्र्वा से सिंध में जाकर सिधराव गाँव बसाया जो बाद में हिंसार के नाम से जाना गया | इनके वंशक्रम में स्च्चाराव ,बल्ला ,और रत्ना हुए | रत्ना व् जग्गा ने मंडोर के प्रतिहारो से पांच सो ऊंट छीनकर अपनी शक्ति का परिचय दिया |
१७.पाहू bhati -रावल वछराज के पुत्र ब्प्पराव के बेटे पाहू के वंशज | पाहू भाटियों ने पहले वीकमपुर फिर पुगल पर अधिकार किया | जनकल्याण के लिए कई कुए खुदवाये जो पाहुर कुए कहलाये | पाहू भाटी वागड़ ने वागड़सर (नोख ) बसाया | मांड में दो गाँव पाहू भाटियों के है | मारवाड़ ,में डावरा,तिंवरी ,केलावा ,खुर्द और अनवाणा में और जेसलमेर में मेघा इसके अलावा भी कई गाँवो में पाहू भाटी है |
१८.अणधा-रावल वछराज के बेटे इणधा के वंशज |
१९;मूलपसाव-रावल वछराव के पुत्र मूलपसाव के वंशज |
२०.राहड-महारावल विजय राज लान्झा के बेटे राहड के वंशज |खडाल में तीन और देरासर के निकट २० गाँव थे | अमरकोट की सीमा पाकिस्तान की सीमा पर भाई कई गाँव है | इसके अलावा बीकानेर में भरेसर के समीप वैरसल और जसा में राहड भाटीहै |
२१.हटा -महारावल विजयराज लान्झा के पुत्र हटा के वंशज हटा bhati कहलाये |हटा bhati सिहडानो ,करडो ,और पोछिनो क्षेत्र में रहे |
२२.भिंया bhati -महारावल विजयराज लान्झा के पुत्र भीव के वंशज भिन्या भाटी कहलाये |
२३.वानर -महारावल सालवाहण के पुत्र वादर के वंशज | जेसलमेर के डाबलो गाँव इनके पट्टे में रहा |
२४.पलासिया -महारावल सालवाहण(सलिवाहन ) के बेटे हंसराज के वंशज पलासिया | महरावल के वंशजो ने बद्रीनाथ की पहाड़ियों में अपना राज्य स्थापित कर उसका नाम पहाड़ी रखा | वहां के bhati निसंतान म्रत्यु हो जाने पर हंसराज को गोद लीया गया | हंसराज जब वहा जा रहे थे तब मार्ग में पलाशव्रक्ष के निचे उसकी राणी ने एक बच्चे को जन्म दिया| उसका नाम पलाश रखा | हंसराज के बाद वह उतराधिकारी बना और उसके वंशज पलासिया कहलाये |
२५.मोकळ-महारवल सालिवाहंण के बेटे मोकल के वंशज मोकल | ये पहले जेसलमेर में रहे फिर मालवा में जाकर बस गए वहां अपने परिश्रम से उद्योगपति के रूप में विशिष्ट पहचान कायम की | आर्थिक द्रष्टि से स्थति उतम रही |
26.
मयाजळ-महारावल सलिवाहंन के पुत्र सातल के वंशज मयाजळ कहलाये | म्याजलार इनका गाँव हे जेसलमेर में इनके आलावा सिंध में है |
२७;जसोड़ -महारावल कालण के पुत्र पालण के पुत्र जसहड के वंशज | जसहड के पुत्र दुदा जैसलमेर की गद्दी पर बैठे और शाका कर अपना नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गए | पूर्व में गाँव लाठी और ३५ गाँव जसोड़ भाटियों के थे फिर महार्वल ने हस्तगत कर लिये | देवीकोट में लक्ष्मण ,वाणाडो,मदासर गाँव इनकी जागीरी में रहे | इसके आलावा छोडिया व् राजगढ़ (देवीकोट ) इनकी भोम रहे | राजगढ़ गाँव फिर बिहारी दसोतों भाटियों की जागीरी रहा | मदासर गाँव के कुम्हारों पर ब्राह्मण अत्याचार करते थे | कुम्हारों द्वारा अनुरोध पर जसोद यहाँ आकर बसे | बड़ी सिर्ड (नोख ) पर भी पहले जसोड़ भाटियो का अधिकार था | जैसलमेर में २४ गाँवो (जसडावटी) के अतिरिक्त मारवाड़ में भी कई ठिकाने रहे है |